HI/Prabhupada 0165 - शुद्ध कार्यों को भक्ति कहते हैं



Lecture on BG Introduction — New York, February 19-20, 1966

सर्वोच्च चेतना, इसका अनुवाद भगवद गीता में हैं। उस अध्याय में जहाँ इश्वर और जीव में अंतर का वर्णन हैं। क्षेत्र-क्षेत्र-ज्ञ. भगवान भी क्षेत्र-ज्ञ हैं, अर्थात सचेत हैं, जीव अथवा जीवित तत्व भी सचेत हैं। अंतर यह हैं की जीव की चेतना शारीर के अन्दर स्थित हैं, किन्तु भगवान सभी शरीरों के विषय में जानते हैं। ईश्वर: सर्व भूतानाम ह्रद-देशे अर्जुन तिष्ठति (भ.गी. १८.६१) | भगवान सभी जीवों के ह्रदय में रहते हैं, अतः वे जीव के मनोभाव और कार्यों के विषय में जानते हैं। हमें भूलना नहीं चाहिए। यह भी वर्णित हैं की परमात्मा, अथवा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, सभी जीवों के ह्रदय में संचालक के रूप में वास करते हैं और दिशा देते हैं। वह दिशा देते हैं। सर्वस्य चाहम ह्रदि सन्निविष्ठ: (भ.गी. १५.१५) | वह सभी के ह्रदय में वास करते हैं और जैसा एक जीव चाहता हैं वैसे ही उसे कार्य करने के लिए दिशा देते हैं।

जीव भूल जाते हैं की उन्हें क्या करना चाहिए। पहले वह एक रूप से कार्य करने की सोचता हैं। और वह क्रिया फलों में बद्ध जाता हैं। किन्तु एक शरीर को त्याग कर वह दूसरे शरीर में प्रवेश करता हैं। जैसे हम एक प्रकार के वस्त्र त्याग कर दूसरे प्रकार के वस्त्र धारण करते हैं। जैसा की भगवद्गीता में वर्णित हैं वासांसी जीर्णानि यथा विहाय (भ.गी. २.२२) | जैसा एक मनुष्य अपने वस्त्र त्यागता हैं वैसे ही मनुष्य शरीरों को भी बदलता हैं। आत्मा का भ्रमण और अपने साथ कार्यों और फलों का वहन। अतः इन कार्यों को रूपांतरित किया जा सकता हैं यदि वह सतो गुण में स्थित हैं। और उसे ज्ञात हो की किस प्रकार के कार्यों को करना चाहिए। और यदि वह ऐसा करता हैं तो उसके सभी गत कर्मो और उनके फलों को बदला जा सकता हैं। अतः कर्म नित्य नहीं हैं।

पांचमें से अन्य चार तत्व - इश्वर, जीव, प्रकृति, काल, कर्म - प्रथम चार नित्य हैं किन्तु कर्म अनित्य हैं। अब सर्वोच्च इश्वर, परमेश्वर, जीव और इश्वर के मध्य अंतर कुछ ऐसा हैं। चेतना तो जीव और भगवान दोनों में ही हैं, ये चेतना दिव्य है | ऐसा नहीं की चेतना का विकास पदार्थ के स्पर्श में आकर हुआ हैं। यह गलत सोच हैं। यह सिद्धांत की आत्मा का विकास पदार्थ के मिश्रण से होता हैं, इसे भगवद गीता में मान्यता नहीं दी गयी हैं। चेतना पदार्थ के आवरण से अनुचित ढंग से प्रतिबिंबित हो सकती'हैं। जैसा की रौशनी एक रंगीन शीशें के परे रंग के अनुसार दिखती हैं। वैसे ही भगवान की चेतना पदार्थों से प्रभावित नहीं हो सकती। कृष्ण कहते हैं, मयाध्यक्षेण प्रकृति: (भ.गी. ९.१०) | जब वह इस मर्त्यलोक में आते हैं तो उनकी चेतना भौतिक रूप से प्रभावित नहीं होती। यदि ऐसा होता तो, वह भगवद्गीता के परलौकिक तत्वों के विषय में बोल न पाते, कोई भी कलुषित चेतना के साथ दिव्य जगत की व्याख्या नहीं कर सकता।

अतः भगवान भौतिक रूप से कलुषित नहीं थे। किन्तु हमारी चेतना अभी कलुषित हैं। अतः भगवद्गीता उपदेश देती हैं की किस प्रकार हमें अपने चेतनाका शुद्धिकरण करना होगा। और उस शुद्ध चेतना में कार्य करना होगा। इससे हम प्रसन्नचित रहेंगे। हम अपने कार्य को रोक नहीं सकते। कार्यों को शुद्ध करना होगा। और इन शुद्ध कार्यों को भक्ति कहते हैं। भक्ति साधारण कार्यों के तरह प्रतीत होते हैं लेकिन वह अशुद्ध नहीं हैं। वह शुद्ध कार्य हैं। अतः एक अबोध मनुष्य यदि एक भक्त को साधारण मनुष्य की तरह कार्य करते हुए देखे, किन्तु एक अज्ञानी मनुष्य को भगवान या भक्त की क्रियाओं के विषय में ज्ञान नहीं होता, वे कार्य पदार्थ की अशुद्ध चेतना से दूषित नहीं होते। गुणों के दूषण से, परन्तु वे दिव्य चेतना है । तो, हमें जानना चाहिए की हमारी चेतना दूषित हैं।