HI/Prabhupada 0185 - हमें इन हवाई बातचीत से परेशान नहीं होना चाहिए



Lecture on SB 3.26.35-36 -- Bombay, January 12, 1975

किसी एक प्रणाली में अटक मत जाअो । प्रणाली आवश्यक है, यदि तुम परम की प्राप्ति की दिशा में प्रगति करो । लेकिन अगर तुम बस एक प्रणाली का अनुसरण करो, लेकिन परम को साकार करने के मामले में अग्रिम नहीं हो, तो, श्रीमद-भागवतम के अनुसार या वैदिक संस्करण के अनुसार, यह बस प्यार का श्रम है । यह है ... इसका कोई मूल्य नहीं है । इसलिए भागवत कहता है "यह प्रथम श्रेणीकी धर्म प्रणाली है ।" , फर्क नहीं पड़ता कि तुम उसे कहो हिंदू या मुस्लिम या ईसाई या बुद्ध । "यही प्रथम श्रेणी का धर्म है जो तुम्हे मदद करता है अधोक्षज के साक्षात्कार में ।" अधोक्षज, कृष्ण का दूसरा नाम है । अधोक्षज का मतलब है विषय वस्तु जो तुम नहीं समझ सकते मानसिक अटकलों से, या अनुभवसिद्ध ज्ञान से, योग और अनुभवसिद्ध ज्ञान से । यही अधोक्षज कहा जाता है । अध: क्रतम् अक्षजम ज्ञानम् यत्र । तो अधोक.....हमें अधोक्षज की शरण लेनी है । ज्ञान के विभिन्न चरण हैं : प्रत्यक्ष, परोक्ष, अपरोक्ष, अधोक्षज, अप्राकृत । इसलिए हमें अप्राकृत की शरण लेनी है, दिव्य, भौतिक प्रकृति से ऊपर, दिव्य । अधोक्षज लगभग करीब है ज्ञान के निचले स्तर से, प्रत्यक्ष, परोक्षापरोक्ष । वे कनिष्ट अधिकार में हैं ।

अर्चायम एव हरये
पूजाम य: श्रद्धयेहते
न तद-भक्तेशु चान्येशु
स भक्त: प्रकृत: स्मृत:
(श्रीमद भागवतम ११.२.४७)|

तो प्राकृत चरण प्रत्यक्ष ज्ञान है, प्रत्यक्ष धारणा है, और ज्ञान जो परम्परा से प्राप्त हुई है । प्रत्यक्ष, परोक्ष, फिर अपरोक्ष, आत्म - बोध, फिर अधोक्षज, अप्राकृत । तो कृष्ण भावनामृत अप्राकृत ज्ञान है । यह कृष्ण का ज्ञान जानने का सर्वोच्च मंच है, अप्राकृत ज्ञान । तो जब तक हम अधोक्षज ज्ञान के स्तर पर हैं, यह नियामक सिद्धांत हैं । हमें सख्ति से नियामक सिद्धांतों का पालन करना होगा । और अप्राकृत ज्ञान परमहंस के लिए है । वहाँ है ... यही राग भक्ति कहा जाता है । इन चरणों में, प्रत्यक्ष, परोक्ष, उन्हे विधी भक्ति कहा जाता है । लेकिन विधि भक्ति के बिना तुम राग भक्ति के मंच तक नहीं पहुँच सकते हो हालांकि यही हमारा उद्देश्य है । रागानुगा, राग-भक्ति का अनुसरन किया जाता है वृन्दावन के श्रद्धालुओं के पद चिन्हों पर चलकर । यही राग भक्ति कहा जाता है । कृष्ण के व्यक्तिगत संगी । सीधे कृष्ण के निजी सहयोगी बनने के लिए नहीं । लेकिन कृष्ण के शाश्वत सहयोगीयों के पद चिन्हों पर चलकर, हम राग भक्ति के मंच पर आ सकते हैं । यही परा भक्ति कहा जाता है । परा भक्ति आवश्यक है ।

ब्रह्म-भूत: प्रसन्नात्मा
न शोचति न कांक्षति
सम: सर्वेशु भूतेशु
मद-भक्तिम लभते पराम
(भ.गी. १८.५४)|

तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन धीरे - धीरे राग भक्ति या परा भक्ति के चरण तक विकसित करना है । तो जीवन सफल है । इस तरह हमें इन हवाई बातचीत से परेशान नहीं होना चाहिए । जैसे यहाँ कहा गया है, मृदुत्वम् कठिनत्वम् च शैत्यम ऊश्नत्वम एव च (श्रीमद भागवतम ३.२६.३६)। हम इन बातों से परेशान हैं । मान लो हम फर्श पर लेटे हुए हैं । यह कठिनत्वम् है: यह बहुत सख्त है । लेकिन अगर हमें एक तकिया या एक अच्छा गद्दा दिया जाए, तो मृदुत्वम् है । इसी तरह, शीतोश्न । जल, कभी कभी बहुत ठंडा लगता है, सर्दी, और कभी कभी यह बहुत गर्म होता है । पानी वही है, लेकिन हवाई व्यवस्था के परिवर्तन के अनुसार, यह विभिन्न हालत में है, अलग स्थिति । और यह दर्द और खुशी का स्रोत है इस स्पर्श के कारण, त्वचा । त्वचा स्पर्श है । तो अगर हम पूरी तरह से समझते हैं कि " मैं यह शरीर नहीं हूँ," इसके लिए अात्मबोध की जरूरत है, अात्मानुभूति । जितना अधिक हम आध्यात्मिक चेतना में उन्नत होंगे, उतना ही हम आत्म-स्थ में स्थित होंगे । यही स्थित-प्रज्ञ कहा जाता है ।

तो फिर हम परेशान नहीं होंगे । और हमें अभ्यास करना चाहिए कि हम इन बद्ध या हवाई परिवर्तन से परेशान न हों । हमें चाहिए । क्योंकि हमारा संबंध नहीं है, आत्मा, अहम् ब्रह्मास्मि । मैं इस भौतिक व्यवस्था से संबंधित नहीं हूँ, लेकिन मुझे इसकी अादत हो गई है । तो अभ्यास से मुझे आध्यात्मिक स्थिति तक अाना होगा । और अभ्यास के दौरान सहिष्णुता की आवश्यकता है । भजन, साधना, या तपस्या, सहनशीलता कहा जाता है । जो चीज़ हम नहीं हैं, लेकिन किसी भी तरह से, हमने ऐसी भौतिक चीजों के साथ अपनी पहचान बनाई है, और फिर से अभ्यास करके, आध्यात्मिक मंच पर अाना, इस सहिष्णुता को तपस्या कहा जाता है । यही तपस्या का अर्थ है । तप: का मतलब है दर्द, स्वेच्छा से कुछ दर्द को स्वीकार करना ।