HI/Prabhupada 0240 - कोई अधिक बेहतर पूजा नहीं है गोपियों की तुलना में



Lecture on BG 2.3 -- London, August 4, 1973

अदर्शनम् । हर कोई कृष्ण को देखना चाहता है, लेकिन एक शुद्ध भक्त कहता है। " नहीं, अगर तुम मुझे देखना पसंद नहीं करते हो, कोई बात नहीं । " तुम मेरे हृदय को तोड़़ सकते हो । मैं हमेशा आप को देखने के लिए प्रार्थना करता रहूँगा । लेकिन आप दर्शन नहीं देते हो और मेरा हृदय तोड़ते हो, यह भी स्वीकार है । फिर भी, मैं अापकी पूजा करूँगा । " यह शुद्ध भक्ति है । ऐसा नहीं है कि, "मैंने कृष्ण को कहा मेरे सामने नाचते हुए अाने के लिए । वह नहीं आए । तो मैं यह सब छोड दूँ । कृष्ण भावनामृत आंदोलन का कोई मूल्य नहीं है ।" ऐसा नहीं है । यह राधारानी का मनोभाव है । तो श्रीकृष्ण ने वृन्दावन को छोड़ दिया ।

सभी गोपियाँ, वे केवल कृष्ण के लिए रो कर दिन बीताती हैं, लेकिन कृष्ण की निंदा नहीं करती । कोई भी आया जब ... कृष्ण भी उनके बारे में सोच रहे थे क्योंकि गोपिया सबसे बड़ी भक्त हैं, सर्वोच्च भक्त । गोपियों की भक्ति के साथ कोई तुलना नहीं है । इसलिए कृष्ण उनके प्रति हमेशा के लिए बाध्य हो गए । कृष्ण ने गोपियों से कहा कि, "तुम्हें अपने काम से संतुष्ट होना होगा। मैं तुम्हारे प्रेम के बदले में तुम्हें कुछ भी वापस नहीं कर सकता हूँ ।" कृष्ण, जो परम हैं, सबसे शक्तिशाली, वह गोपियों का ऋण चुकाने में असमर्थ थे ।

तो गोपियॉ ... चैतन्य महाप्रभु ने कहा, रम्या काचिद् उपासना व्रज-वधू-वर्गेण या कल्पिता । कोई अधिक बेहतर पूजा नहीं है गोपियों की तुलना में । तो गोपिया सर्वोच्च भक्त हैं । और गोपियों में, श्रीमती राधारानी सर्वोच्च हैं । इसलिए श्रीमती राधारानी कृष्ण से उच्च हैं । तो यह गौड़ीय-वैष्णव तत्वज्ञान है । इसमें समय की आवश्यकता है । तो कृष्ण की गतिविधियाँ, दुष्ट, वे बस देखते हैं कि "कृष्ण अर्जुन को लड़ने के लिए उक्सा रहे हैं, इसलिए कृष्ण अनैतिक हैं," इसका मतलब है गलत दृष्टि । तुम्हें अलग आँखों से कृष्ण को देखना है । इसलिए कृष्ण भगवद्गीता में कहते हैं, जन्म कर्म मे दिव्यम् च । दिव्यम् (भ.गी. ४.९) । कृष्ण की ये दिव्य गतिविधियाँ, अगर कोई भी समझ सकता है, केवल अगर कोई भी इसे समझ सकता है, तो वह तुरंत मुक्त हो जाता है । मुक्ति ।

साधारण मुक्ति नहीं, लेकिन वापस घर के लिए, वापस परम धाम जाने के लिए । त्यक्त्वा देहम् पुनर् जन्म नैति माम् एति कौन्तेय (भ.गी. ४.९) । सबसे बड़ी मुक्ति । मुक्ति विभिन्न प्रकार की होती हैं । सायुज्य सारूप्य सार्ष्टि सालोक्य सायुज्य... (चैतन्य चरितामृत मध्य ६.२६६) । पाँच प्रकार की मुक्ति । तो सायुज्य का मतलब है अस्तित्व में लीन होना, ब्रह्म, ब्रह्म-लय । वह भी मुक्ति है । मायावादी या ज्ञानी सम्प्रदाय, वे अस्तित्व में लीन होना चाहते हैं, ब्रह्म अस्तित्व । वह भी मुक्ति है । यही सायुज्य-मुक्ति कही जाती है । लेकिन एक भक्त के लिए, यह सायुज्य-मुक्ति बस नर्क की तरह है। कैवल्यम् नरकायते ।

तो वैष्णवों के लिए, कैवल्यम् ... अद्वैतवाद, उस परम के अस्तित्व में लीन होना, नर्क के साथ तुलना की जाती है । कैवल्यम् नरकायते त्रि-दश-पूर अाकाश-पुश्पायते (चैतन्य चंद्रामृत ५) । और कर्मी... ज्ञानी ब्रह्म के तेज में लीन होने के लिए उत्सुक हैं, और कर्मी उनका सर्वोच्च उद्देश्य है कि कैसे उच्च ग्रहों तक पहुँचा जाए । स्वर्ग लोक जहाँ इंद्र देव हैं, या ब्रह्मा हैं । यह कर्मी की महत्वाकांक्षा है स्वर्ग में जाने की । वे सभी, वैष्णव तत्वज्ञान के अलावा, अन्य सभी शास्त्र, अन्य सभी साहित्य में, मतलब है ईसाई और मुसलमान, उनका उद्देश्य है स्वर्ग तक कैसे पहुँचें ।