HI/Prabhupada 0383 - गौर पाहु तात्पर्य



Purport to Gaura Pahu -- Los Angeles, January 10, 1969

गौर पाहु ना भाजिया ग्वाइनु, प्रेम-रतन-धन हेलाय हाराइनु । यह नरोत्तम दास ठाकुर द्वारा एक और गाना है । वे कह रहे हैं कि, "मैंने आध्यात्मिक मौत को आमंत्रित किया है भगवान चैतन्य की पूजा न करके ।" गौर पाहु ना भाजिया ग्वाइनु । गौर पाहु का मतलब है "भगवान चैतन्य ।" ना भजिया, "पूजा किए बिना ।" ग्वाइनु "मैंने आध्यात्मिक मौत को आमंत्रित किया है ।" और अधमे यतने करी धनु तैनु । "क्यों मैंने आध्यात्मिक मौत को आमंत्रित किया है? क्योंकि मैं बेकार की बातों में लगा हूँ और मैंने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को त्याग दिया है ।" अधम का मतलब है बेकार बातें । और धन का मतलब है क़ीमती । तो वास्तव में, हम में से हर कोई, अपने आध्यात्मिक उद्धार की उपेक्षा कर रहे हैं, हम भौतिक इन्द्रिय संतुष्टि में लगे हुए हैं, और इसलिए हम, मानव शरीर के इस अवसर को खो रहे हैं, आध्यात्मिक मंच पर खुद को ऊपर उठाने के ।

यह मानव शरीर विशेष रूप से बद्ध आत्मा को दिया जाता है आध्यात्मिक उद्धार के लिए एक मौका । तो जो कोई भी आध्यात्मिक उद्धार के लिए परवाह नहीं करता है , वह आध्यात्मिक मौत को आमंत्रित कर रहा है । आध्यात्मिक मृत्यु का मतलब है अपने आप को भूलना, कि वह अात्मा है । यही आध्यात्मिक मृत्यु है । तो पशुओं का जीवन पूरी तरह से भूलना है । उन्हे किसी भी परिस्थिति में याद दिलाया नहीं जा सकता है, कि वे यह शरीर नहीं हैं, कि वे इस शरीर से अलग हैं । यह केवल मानव शरीर में, मनुष्य जीवन में, हम समझ सकते हैं कि हम यह शरीर नहीं है, हम आत्मा हैं ।

तो हरे कृष्ण का जप करने से, हम बड़ी आसानी से इस तथ्य को समझ सकते हैं, और भगवान चैतन्य की पूजा से, उनके सिद्धांतों और तरीकों का पालन करके, हम हरे कृष्ण मंत्र का जप कर सकते हैं और बहुत आसानी से आध्यात्मिक समझ के मंच पर आ सकते हैं । लेकिन नरोत्तम दास ठाकुर हमारी ओर से कहते हैं कि हम इसकी उपेक्षा कर रहे हैं । इसलिए हम आध्यात्मिक मौत को आमंत्रित कर रहे हैं । फिर वह कहते हैं प्रेम-रतन-धन हेलाय हाराइनु । आध्यात्मिक जीवन का मतलब है इस असली प्यार का विकास करना । हर कोई प्यार कहता है । इतने सारे साइनबोर्ड हैं, इतने सारे कागज़, "प्यार, प्यार ।" लेकिन प्रेम नहीं है । यह भ्रम है । यह सब वासना है । नशे के लिए प्यार, यौन के लिए प्यार, इस बात के लिए प्यार ... यह चल रहा है ।

तो वास्तविक प्यार का मतलब है ... प्यार, यह शब्द, केवल कृष्ण के साथ लागू किया जा सकता है, भगवान के साथ । क्योंकि हम उस उद्देश्य के लिए बने हैं । प्यार करने का मतलब है कृष्ण को प्यार करना । इसलिए यह ज़रूरी है । आध्यात्मिक प्रेम यही है । तो प्रेम-रतन । मैं प्यार की उस दिव्य स्थिति को प्राप्त कर सकता हूँ, लेकिन मैं उपेक्षा कर रहा हूँ । इसलिए मैं इसे अपनी आध्यात्मिक मौत बुला रहा हूँ । और यह चीज़े हो रही हैं मेरे अतीत के कुकर्मों की वजह से । जिस किसी को भी यह भौतिक शरीर मिला है, यह अतीत के कुकर्मों की वजह से है । कभी कभी हम पवित्र कर्म कहते हैं ।

दरअसल, जब तक हम इस भौतिक शरीर को पाते हैं कोई पवित्र कर्म नहीं है । पवित्र कर्मों का मतलब है कोई भौतिक शरीर नहीं । यही पवित्र कर्म हैं । नहीं तो यह एक तथ्य के रूप में लिया जाना चाहिए है ​​कि ब्रह्मा भी, जो इस ब्रह्मांड के मुख्य जीव हैं और जिन्हे जीवन की अवधि वर्षों के रूप में से एक बड़े पैमाने पर मिली है, सम्पूर्ण शक्ति, फिर भी, यह भी दुष्कर्म माना जाता है क्योंकि उन्हे भौतिक शरीर मिला है । तो हम नीचे और नीचे जा रहे हैं एक के बाद एक, शरीर, हमारे कुकर्मों से । भागवत में भी यह कहा गया है कि वे नहीं जानते हैं कि, इस इन्द्रिय तृप्ति की प्रक्रिया से वे एक और शरीर पाऍगे । और शरीर कारण है भौतिक कष्टों के लिए । क्योंकि मुझे यह शरीर मिला है, इसलिए मैं सिर में दर्द महसूस कर रहा हूँ, मैं पेट में दर्द महसूस हो रहा हूँ । मैं यह महसूस कर रहा हूँ, मैं वह महसूस कर रहा हूँ । लेकिन, जैसे ही हम इस भौतिक शरीर से बाहर अाते हैं, कोई भौतिक कष्ट नहीं रहता है । यह बस खुशहाल जीवन है ।

ब्रह्म भूत: प्रसन्नात्मा (भ.गी. १८.५४) । प्रसन्नात्मा का मतलब है हर्षित ,जैसे हि हमें आध्यात्मिक जीवन मिलता है | तो मेरे पूर्व जन्मों के कर्मों के कारण, मैं इस अवसर को खो रहा हूँ । अपान कर मद सेवा ... यह क्यों हो रहा है? सत-संग छाडी खाइनु असतयेर विलास । "मैंने भक्तों का सहयोग छोड़ दिया है, लेकिन मैं आम बकवास पुरुषों के साथ जुड रहा हूँ ।" असत्येर । असत अौर सत । सत का मतलब है अात्मा । अौर असत का मतलब है पदार्थ । तो भौतिक लगाव से सहयोग का मतलब है, बद्ध जीवन में फसना । तो हमें भक्तों के साथ संग करना चाहिए । सताम प्रसंगाद मम वीर्य-सम्विदो ।

हम भगवान के बारे में समझ सकते हैं केवल भक्तों के संग में । इसलिए हम इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन, समाज, की वकालत कर रहे हैं । असल में, तुम पाअोगे, जो यह समाज में अा रहे हैं, संग से कुछ दिनों में, कुछ हफ्तों में, वह सचेत हो गया है, और वह दीक्षा के लिए अागे अाता है और अधीक प्रगति करना चाहता है । तो यह संग बहुत महत्वपूर्ण है । जो विभिन्न केंद्रों और मंदिरों का आयोजन कर रहे हैं, उन्हें बहुत जिम्मेदार पुरुष होना चाहिए, क्योंकि सब कुछ उनकी ईमानदार गतिविधियों और चरित्र पर निर्भर करेगा । वे निष्ठाहीन हैं, तो वह प्रभावी नहीं होंगे । कोई अाता है अौर हमारे साथ संग करता है, लेकिन अगर हम निष्ठाहीन हैं, तो यह प्रभावी नहीं होगा । लेकिन अगर भक्त ईमानदार हैं, जो कोई भी भक्त के साथ संपर्क में आएगा, वह बदल जाएगा । यही रहस्य है ।

सत-संग छाडि असत्येर विलास । और जैसे ही हम इन भक्तों का संग छोड देते हैं, तो तुरंत माया मुझे पकड़ लेगी जैसे ही हम यह संग छोड़ देते है, माया कहती है, "हां, मेरे संग में आ जाओ |" किसी भी संग के बिना, कोई भी तटस्थ रह नहीं सकता हैं । यह संभव नहीं है । उसे माया या कृष्ण के साथ संबद्ध करना ही होगा । तो हर किसी को भक्तों के साथ, कृष्ण के साथ, संग बनाए रखने के लिए बहुत ज्यादा गंभीर रहना चाहिए । कृष्ण का अर्थ है ... जब हम कृष्ण की बात करते हैं, "कृष्ण" का मतलब है अपने भक्तों के साथ कृष्ण । कृष्ण कभी अकेले नहीं रहते हैं । कृष्ण राधारानी के साथ हैं । राधारानी गोपियों के साथ है । और कृष्ण चरवाहे लड़कों के साथ हैं । हम मायावादी नहीं हैं । हम कृष्ण को अकेले नहीं देखते हैं । इसी तरह, कृष्ण का मतलब है कृष्ण के भक्तों के साथ ।

तो कृष्ण भावनामृत का मतलब है कृष्ण के भक्तों का संग रखना । विषय विषम विष सतत खाइनु । और वे कहते हैं, "मैंने हमेशा इन्द्रिय संतुष्टि का यह सबसे खतरनाक जहर पिया है । " विषय विषम विष । विषय का मतलब है इन्द्रिय संतुष्टि । सोना, संभोग, भोजन, और बचाव । ये विषय कहे जाते हैं । और विषम का मतलब है खतरनाक तरीके से । और विष का मतलब है जहर। अगर कोई जीवन के इन चार सिद्धांतों में लगा हुअा है, बस जानवरों की तरह | तो यह माना जाता है कि वह केवल जहर पी रहा है। बस । विषय विषम सतत खाइनु | "मैं जानते हूँ कि यह जहर है, लेकिन मैं इतना नशे में हूँ, कि मैं हर पल यह जहर पी रहा हूँ ।" गौ

र-कीर्तन-रसे मगन न पाइनु । "और मैं भगवान चैतन्य द्वारा शुरू किए गए संकीर्तन आंदोलन में खुद को लीन नहीं कर पर रहा हूँ ।" ओह, यह वास्तव में तथ्य है । जो लोग जीवन के बहुत अधिक भौतिकवादी मार्ग से जुड़े होते हैं, या हमेशा इन्द्रिय संतुष्टि के जहर को पीने में लगे हुए हैं, वे इस संकीर्तन आंदोलन की ओर आकर्षित नहीं होते हैं । तो अंत में, नरोत्तम दास ठाकुर विलाप कर रहे हैं । वे खुद का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं । अगर कोई विलाप के इस बिंदु तक अाता है, तो वह भी बहुत अच्छा है । वह तत्काल शुद्ध हो जाता है । विलाप का मतलब है शुद्धि ।

इसलिए वह कहते हैं, केनो वा अाछया प्राण किछू बालि ... "मैं क्यों जीवित हूँ ? मैं भक्तों के साथ संग नहीं करता हूँ, मैं संकिर्तन आंदोलन में भाग नहीं लेता हूँ । मैं कृष्ण क्या हैं समझ नहीं पाता हूँ । मैं भगवान चैतन्य क्या हैं समझ नहीं पाता हूँ । तो मैं जी क्यों रहा हूँ ? " यह विलाप है । "मेरी खुशी क्या है? मेरी खुशी का धोरण क्या है? क्यों मैं जी रहा हूँ?" नरोत्तम दास केन ना गेला । "क्यों मैं बहुत पहले मर नहीं गया? मुझे मर जाना चाहिए था । मेरे जीवन का अर्थ क्या है? " तो यह नरोत्तम दास ठाकुर का विलाप नहीं है । हम सब को इस तरह से सोचना चाहिए की, की "अगर हम भक्तों के साथ संग नहीं कर सकते हैं, अगर हम समझ नहीं सकते हैं कि यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन क्या है अगर हम भगवान चैतन्य और साथियों के संपर्क में नहीं आते हैं, मेरा मरना ही बेहतर था । और कोई दूसरा उपाय नहीं है ।"