HI/Prabhupada 0756 - आधुनिक शिक्षा में कोई वास्तविक ज्ञान नहीं है



Lecture on SB 6.1.10 -- Honolulu, May 11, 1976

तो, हाँ, गुरु, सुखदेव गोस्वामी ने परीक्षित ​महाराज की जांच की, और यह प्रतीत होता है कि राजा परीक्षा के एक चरण को पार​ कर चुके है, प्रायश्चित करने की प्रक्रिया को खारिज करके । यह बुद्धिमान है । तुरन्त कहा, "गुरु, यह क्या है?" उन्होंने अस्वीकार कर दिया । प्रायश्चित करने की प्रक्रिया को अस्वीकार किया क्योंकि, उनमे कर्म्कान्ड कार्य शामिल है । कर्म, मैने कुछ पाप किये है, फिर दुसरा कर्म, मुझे दन्डित करेगा ।

तो यह कहा जाता है... एक कर्म दूसरे कर्म द्वारा निरस्त नहीं हो सकता । कर्म का मतलब है कार्य । वे लोग चलते जा रहे है, संकल्प के बाद संकल्प और कानून के ऊपर कानून बनाते जा रहे हैं, लेकिन चीजें एक ही स्थिति में हैं । वे बदल नहीं रही हैं । इसलिए इस तरह से इसको रोका नहीं जा सकता । कर्मणा कर्म​-निर्हार (श्रीमद भागवतम ६.१.११) । अब सुखदेव गोस्वामी तार्किक ज्ञान के मंच का सुझाव दे रहे है । जब यह विफल हो गया है की, एक चोर, बार बार आपराधिक कार्य कर रहा है, बार-बार वह दंडित किया जा रहा है, लेकिन उसे सुधारा नहीं जा रहा है, फिर उपाय क्या है ? वो है विमर्शनम, तार्किक ज्ञान । कर्म-कांड से ज्ञान-कांडा की ओर​ प्रगति, वह प्रायश्चित्तम विमर्शनम (श्रीमद भागवतम ६.१.११) का प्रस्ताव दे रहे है: असली प्रायश्चित है पूर्ण ज्ञान । व्यक्ति को पूर्ण ज्ञान दिया जाना चाहिए ।

जब तक वह ज्ञान की ओर बढता नहीं है... इसलिए आधुनिक शिक्षा में कोई वास्तविक ज्ञान नहीं है । वास्तविक ज्ञान भगवद गीता में शुरू होता है । भगवद गीता जिसने भी पढी है, सबसे पहले उसे यह समज मे आता है की अर्जुन को शिक्षा दी गई । जब​ वह उलझन में था और वह कृष्ण का शिष्य बन गया, शिष्यस ते अहम शाधि माम प्रपन्नम (भ.गी. २.७): "कृष्ण, हम यह​ मैत्रीपूर्ण बात करना बंद करते हैं । हम यह मैत्रीपूर्ण बात करना बंद करते हैं । अब मैं आपका शिष्य बनने के लिए सहमत हूँ । अब आप मुझे सिख़ाओ ।"

तो पहला शिक्षण अनुशासनात्मक सज़ा था । आशोच्यान अन्वशोचस त्वम प्रज्ञा-वादांश च भाषसे (भ.गी. २.११): "तुम्हे ज्ञान नहीं है।" गतासुन अगतासुंश च नानुशोचन्ति पण्डिता: "तुम एक पंडित की तरह बात कर रहे हो, लेकिन तुम पंडित नहीं हो ।" उन्होंने परोक्ष रूप से कहा, "तुम एक मूर्ख हो," क्योंकि नानुशोचन्ति, " इस तरह कि सोच विद्वान नहीं रखते है ।" उसका मतलब है "तुम एक विद्वान व्यक्ति नहीं हो।" यही वर्तमान समय में चल रहा है । हर कोई सोच रहा है की वह बहुत अत्यधिक विद्वान​ है, लेकिन वह एक नंबर का मूर्ख है । ये चल रहा है, क्योंकि कोइ मानक ज्ञान नहीं है ।

सनातन गोस्वामी भी, जब वह, चैतन्य महाप्रभु के संपर्क मे आये, उन्होने भी एक ही बात कही । उन्होंने इसी अर्थ में कहा | वह प्रधानमंत्री थे । वह संस्कृत और उर्दू में बहुत विद्वान थे - उन दिनों में उर्दू, क्योंकि वो मुहाम्मदन सरकार थी । पर उन्होने सोचा की, "यह सब मुजे विद्वान केहते है, लेकिन मैं किस तरह का विद्वान हूँ ?" उन्होंने भगवान चैतन्य से ये प्रश्न पूछा । ग्राम्या व्यवहारे कहये पंडित सत्या करी मानी, आपनार हिताहित किछुइ नाहि जानी: "मेरे प्यारे प्रभु चैतन्य महाप्रभु, ये आम आदमी, वे कहते हैं, मैं एम.ए., पीएच.डी., डी.ए.सी., वगैरह वगैरह, हूँ | मैं बहुत विद्वान हूँ । पर मै इतना बडा विद्वान हूँ कि मुझे यही नही पता की मै कौन हूँ और मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है |" जरा देखो ।

किसी भी तथाकथित विद्वान से पूछो की "जीवन का लक्ष्य क्या है ?" वो कह नहीं सकता । जीवन का लक्ष्य कुत्ते की तरह, एक ही है: पीते है, खाते है, मगन होते है, और आनंद लेते हैं और मर जाते हैं । बस इतना ही । तो शिक्षा कहा है ? कोई शिक्षा नहीं है । असली शिक्षा अलग है: की एक मनुष्य को अपनी स्थिति पता होनी चाहिए और उसके अनुसार व्यवहार करना चाहिए ।