HI/Prabhupada 0819 - आश्रम का मतलब है आध्यात्मिक विकास

Revision as of 15:31, 23 October 2018 by Harshita (talk | contribs)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)


Lecture on SB 2.1.2-5 -- Montreal, October 23, 1968

प्रभुपाद:

श्रोतव्यादीनी राजेन्द्र
नृणाम् सन्ति सहस्रश:
अपश्यताम अात्म तत्वम
गृहेषु गृह मेधिनाम
(श्रीमद भागवतम २.१.२) |

वही विषय, जो लोग बहुत ज्यादा अासक्त हैं परिवार के मामलों में, गृहेषु गृह मेधिनाम । गृहमेधि का अर्थ है जिसने घर को अपनी गतिविधियों का केंद्र बना दिया है । वह गृहमेधी कहा जाता है । दो शब्द हैं । एक शब्द गृहस्थ है, और एक शब्द गृहमेधी है । इन दो शब्दों का क्या महत्व है ? गृहस्थ का मतलब है... गृहस्थ ही नहीं । यह गृहस्थ-आश्रम कहा जाता है । जब भी हम आश्रम की बात करते हैं, उसका आध्यात्मिक रिश्ता है | तो ये सभी चार वर्ग सामाजिक अाश्रम के - ब्रह्मचारी-आश्रम, गृहस्थ-आश्रम, वानप्रस्थ-आश्रम, सन्यास-आश्रम । आश्रम । आश्रम का मतलब है... जब भी... आश्रम, यह शब्द, तुम्हारे देश में भी थोड़ा सा लोकप्रिय हो गया है । आश्रम का मतलब है आध्यात्मिक विकास ।

आम तौर पर, यह मतलब है हमारा । और यहाँ भी, कई योग-आश्रम हैं । मैंने न्यूयॉर्क में इतने सारे अाश्रम देखे हैं । "न्यूयॉर्क योग आश्रम," "योग सोसायटी," एसे । आश्रम का मतलब है कि उसका एक आध्यात्मिक संबंध है । इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि एक आदमी... गृहस्थ का मतलब है परिवार, पत्नी और बच्चों के साथ रहना । तो परिवार और बच्चों के साथ रहना जीवन की आध्यात्मिक उन्नति के लिए कोई अयोग्यता नहीं है | यह एक अयोग्यता नहीं है क्योंकि आख़िरकार, हमें एक पिता और माँ से ही जन्म लेना होगा ।

तो सभी महान अाचार्य़, महान आध्यात्मिक नेता, वे भी पिता और माता से आए हैं । तो पिता और माता के संयोजन के बिना, यहां तक ​​कि एक महान आत्मा के अाने की कोई संभावना नहीं है । कई उदाहरण हैं महान आत्माओं के जैसे शंकराचार्य, प्रभु यीशु मसीह, रामानुजाचार्य । हालांकि उनका कोई बहुत उच्च वंशानुगत शीर्षक नहीं था, फिर भी, वे गृहस्थ से जन्मे, पिता और माता । तो गृहस्थ, या गृहस्थ जीवन, अयोग्यता नहीं है । हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि केवल ब्रह्मचारी या संन्यासी, वे आध्यात्मिक मंच पर उन्नति कर सकते हैं, अौर जो लोग अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रह रहे हैं वे नहीं । नहीं । चैतन्य महाप्रभु नें स्पष्ट रूप से चैतन्य-चरितामृत में कहा है कि

किबा विप्र किबा न्यासी शूद्र केने नय
येइ कृष्ण तत्व वेत्ता सेइ गुरु हय
(चैतन्य चरितामृत मध्य ८.१२८)

चैतन्य महाप्रभु ने कहा, "कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कोई व्यक्ति गृहस्थ है, एक सन्यासी या एक ब्राह्मण या ब्राह्मण नहीं है । यह मायने नहीं रखता है । केवल वह कृष्ण भावनाभावित है, अगर वह कृष्ण भावनामृत में उन्नत है, तो वह सिर्फ, मेरे कहने का मतलब है, आध्यात्मिक गुरु बनने के लिए पात्र है ।" येइ कृष्ण-तत्त्व-वेत्ता सेई गुरु हय (चैतन्य चरितामृत मध्य ८.१२८) । तत्त्व-वेत्ता का मतलब है जो कृष्ण के विज्ञान के बारे में जानता है । मतलब पूरी तरह से कृष्ण भावनाभावित । सेई गुरु हय । सेई मतलब "वह ।" गुरु का मतलब है "आध्यात्मिक गुरु ।" वे नहीं कहते हैं कि "हमें सन्यासी या एक ब्रह्मचारी बनना है । तो फिर वह कर सकता है..." नहीं । लेकिन यहाँ यह शब्द प्रयोग किया गया है गृहमेधी, गृहस्थ नहीं । गृहस्थ निंदनीय नहीं है । अगर कोई अपनी पत्नी और बच्चों के साथ नियामक सिद्धांत में रहता है, तो यह अयोग्यता नहीं है । लेकिन गृहमेधी, गृहमेधी मतलब उसके कोई उच्च विचार या उच्च समझ नहीं है आध्यात्मिक जीवन की । केवल पत्नी और बच्चों के साथ रहना बिल्लियों और कुत्तों की तरह, वह गृहमेधी कहा जाता है । यही इन दो शब्दों के बीच अंतर है, गृहमेधी अौर गृहस्थ ।