HI/Prabhupada 0088 - हमारे साथ जो छात्र शामिल हुए हैं, वे श्रवणिक अभिग्रहण करते हैं



Lecture on BG 7.1 -- San Diego, July 1, 1972

ब्रह्मा कहते हैं । ब्रह्मा का अनुभव ...वे इस ब्रह्मांड के सर्वोच्च प्राणी हैं । उन्होंने कहा कि, "जब एक व्यक्ति अटकलों की यह बेकार आदत छोड़ देगा...." ज्ञाने प्रयासम् उदपास्य (श्रीमद भागवतम १०.१४.३) । उसे विनम्र होना चाहिए । किसी को ऐसे पेश नहीं आना चाहिए जैसे कि उसे कुछ पता है, वह कुछ कल्पना कर सकता है, वह कुछ आविष्कार कर सकता है । जैसे तथाकथित वैज्ञानिक, वे केवल अटकलें और श्रम बर्बाद कर रहे हैं । तुम्हारे द्वारा कुछ नहीं किया जा सकता है । सब कुछ पहले से ही व्यवस्थित किया जा चुका है । तुम बदल नहीं सकते हो । तुम केवल देख सकते हो कि यह कानून कैसे काम कर रहा है, इतना तुम कर सकते हो । लेकिन न तो तुम कानून को बदल सकते हो, ना हि तुम बेहतर व्यवस्था कर सकते हो कानून लागू करने के लिए । नहीं । तुम ऐसा नहीं कर सकते हो ।

दैवि ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया (भ गी ७.१४) । दुरत्यया का अर्थ है बहुत कठिन । तो चैतन्य महाप्रभु, जब उन्हें ब्रह्मा के इस बयान के बारे में बताया गया, कि हमें यह अटकलें छोड़ देनी चाहिए, कि हम कुछ सृजन कर सकते हैं ... ये बेकार की आदतों को छोड़ दिया जाना चाहिए । उसे बहुत विनम्र हो जाना चाहिए । घास से भी ज़्यादा विनम्र । जैसे कि हम घास को रौंदते हैं, वह विरोध नहीं करता । "ठीक है, श्रीमान, आप जाइए ।" इस प्रकार की विनम्रता । तृणद् अपि सुनिचेन तरोर् अपि सहिष्नुना (शिक्षाष्टकम ३) । तरु का अर्थ है वृक्ष । वृक्ष इतना सहनशील होता है । तो चैतन्य महाप्रभु ने कहा, ज्ञाने प्रयासम् उदपास्य नमन्त एव..... "या तो, मैं अटकलें छोड दूँ और मैं विनम्र हो जाऊँ, आप के सलाह पर । तो मेरा अगला कर्तव्य क्या है ?" अगला कर्तव्य है: नमन्त एव, विनम्र होना, सन्-मुखरितां भवदीय-वार्तां (श्रीमद भागवतम १०.१४.३), तुम्हे एक व्यक्ति से संपर्क करना चाहिए जो भक्त है, और तुम्हे उससे सुनना चाहिए ।

स्थाने स्थिता: । तुम अपने स्थान पर बने रहो । तुम अमरीकी रहो । तुम भारतीय बने रहो । तुम ईसाई बने रहो । तुम एक हिन्दू बने रहो । तुम काले बने रहो । तुम सफेद बने रहो । तुम महिला बनी रहो, पुरुष, जो भी तुम हो । केवल तुम सिद्ध आत्माओं द्वारा दिए गए प्रवचनों को सुनो । यह सिफारिश की गई है । और जब तुम सुनते हो, तो तुम मनन भी करो । वैसे ही जैसे तुम मुझे सुन रहे हो, अगर तुम मनन करोगे कि "स्वामीजी ने क्या कहा ...?" स्थाने स्थिता: श्रुति-गतां तनु-वान् मनोभी: (श्रीमद भागवतम १०.१४.३) श्रुति-गतां । श्रुति का अर्थ है कान से श्रवण करना । अगर तुम मनन करो अैर समझने की कोशिश करते हो अपने शरीर, मन के साथ, तो धीरे-धीरे तुम... क्योंकि तुम्हारा उद्देश्य आत्म -बोध है । तो स्वयं का अर्थ है परमात्मा । भगवान, वे परमात्मा हैं । हम अंश हैं ।

तो इस प्रक्रिया के द्वारा, चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, भगवान, अजीत, जिस पर कोई विजय प्राप्त नहीं कर सकता है ... यदि तुम ... चुनौती देकर, अगर तुम भगवान को जानना चाहते हो, तुम समझ नहीं पाअोगे । भगवान कभी चुनौती नहीं स्वीकार करते हैं । क्योंकि भगवान महान हैं, वे क्यों तुम्हारी चुनौती स्वीकार करेंगे ? यदि तुम कहते हो, "ओह, मेरे प्रिय भगवान, कृपया यहाँ अाइए । मैं आपको देखूंगा," तो भगवान ऐसे नहीं हैं, कि उन्हें तुम्हारे आदेश का पालन करना पडे । तुम्हे उनके आदेशों का पालन करना चाहिए । तब यह भगवत साक्षात्कार है । भगवान कहते हैं: "तुम शरणागत हो जाअो ।" सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज (भ गी १८।।६६) । इस प्रक्रिया से, तुम भगवान के बारे में सीखोगे । नाकि, "ओह, मैं भगवान का पता लगा लूँगा । मैं बुद्धिमान हूँ, अटकलें कर सकता हूँ । नहीं ।

तो यह सुनना...... हम सुनने की बात कर रहे हैं । यह सुनने कि प्रक्रिया बहुत महत्वपूर्ण है । हमारे सभी, यह संस्थान, कृष्ण भावनामृत आंदोलन, फैला है क्योंकि हमारे साथ शामिल हुए छात्र, उन्होंने सुना है, श्रवण द्वारा । यह श्रवण, सब कुछ उनके भीतर बदल गया और वे पूर्णता से, हार्दिकता के साथ शामिल हो गए, और ... चल रहा है । इसलिए सुनना बहुत महत्वपूर्ण है । हम कई केन्द्र खोल रहे हैं केवल लोगों को सुनने का मौका देने के लिए दिव्य संदेश के बारे में । तो तुम यह मौका लो, तुम लो, मेरे कहने का मतलब है, इस सुनने की प्रक्रिया का लाभ उठाअो ।