HI/Prabhupada 0232 - तो भगवान से जलने वाले दुश्मन भी हैं । वे राक्षस कहे जाते हैं



Lecture on BG 2.4-5 -- London, August 5, 1973

प्रद्युम्न: "इस संसार में भीख माँग कर जीवन निर्वाह करना जो मेरे गुरु है ऐसे महापरुषों के जीवन के मूल्य पर जीने की तुलना में श्रेष्ठतर है । भले ही वे लोभी हैं, वे फिर भी वरिष्ठ हैं । अगर वे मारे गए, तो हमारी विजयोपहार खून से सनी होगी । "

प्रभुपाद: तो अर्जुन के लिए पहली समस्या थी कि कैसे भाइयों, परिवार के पुरुषों का वध करें । अब जब वह मित्र के रूप में श्रीकृष्ण द्वारा ड़ाँटे गए कि "क्यों तुम इतने दुर्बल हो रहे हो ? कमज़ोर मत बनो । यह भावुकता है । इस तरह की करुणा भावुकता है । उत्तिष्ठ। उचित होगा कि तुम उठो और युद्ध करो ।" लेकिन, वह कर सकते हैं... यदि मैं कुछ नहीं करना चाहता, तो मैं कई तर्क प्रस्तुत कर सकता हूँ । आप देख सकते हैं ? तो अगला वह प्रस्तुत कर रहा है गुरुन्: "ठीक है, श्रीकृष्ण, अाप मेरे रिश्तेदारों के विषय में बात कर रहे हैं । मैं यह स्वीकार करता हूँ कि यह मेरी कमज़ोरी है । परन्तु आप मुझे मेरे गुरु को मारने की सलाह कैसे दे सकते हैं ? द्रोणाचार्य मेरे गुरु हैं । और भीष्मदेव भी मेरे गुरु हैं । तो क्या आप चाहते हैं कि मैं अपने गुरू का वध कर दूँ ? गुरुन् हि हत्वा । और केवल साधारण गुरू नहीं । एेसा नहीं है कि ये साधारण व्यक्ति हैं । महानुभावान् ।

भीष्म एक महान भक्त हैं, और इसी तरह, द्रोणाचार्य भी, एक महान व्यक्ति हैं, महानुभावान् । तो कथम् भीष्मम् अहम् संख्ये द्रोणम् च मधुसूदन (भ.गी. २।.४) । "वे दो महान व्यक्तित्व हैं । वे न केवल मेरे गुरु हैं , लेकिन वे महान व्यक्ति हैं ।" और कृष्ण को "मधुसूदन" संबोधित किया गया है । मधुसूदन का अर्थ ... मधु कृष्ण का शत्रु था, एक राक्षस था । तो उन्होंने उसे मार ड़ाला ।

तो "अाप मधुसूदन हैं, आप अपने शत्रुओं का वध करते हैं । क्या अाप मुझे कोई प्रमाण दे सकते हैंं कि अापने अपने गुरु का वध किया हो ? तो अाप मुझे क्यों कह रहे हैं ?" यह तात्पर्य है । इशुभि: प्रतियोत्स्यामि पूजारहाव अरि-सूदन । फिर से अरि-सूदन । अरि का अर्थ है शत्रु । मधुसूदन, विशेष रूप से " मधु राक्षस का वध करने वाले ।" और अगला है अरिसूदन । अरि का अर्थ है शत्रु । तो कृष्ण ने इतने सारे राक्षसों को मारा है, अरि, जो युद्ध करने के लिए शत्रु के रूप में अाए । इसलिए उनका नाम अरिसूदन है । तो कृष्ण के कई शत्रु हैं, अपनी क्या बात करें ।

यह भौतिक संसार इस तरह से बना हुआ है कि आपके शत्रु होने ही चाहिए । मत्सरता । मत्सरता का अर्थ है ईर्ष्या । यह भौतिक संसार ऐसा ही है । तो भगवान के भी ईर्ष्यालु शत्रु हैं । वे राक्षस कहे जाते हैं । सामान्य ईर्ष्या व शत्रुता, यह स्वाभाविक है । लेकिन भगवान के लिए भी । ठीक कल रात को, शाम को, कोई मुझसे मिलने के लिए आया था । वह बहस कर रहा था कि, "क्यों कृष्ण भगवान के रूप में स्वीकार किए जाने चाहिए ?" यह उसका तर्क था । तो कृष्ण के शत्रु हैं । इसलिए कृष्ण... वे ही नहीं, वरन् भौतिक संसार में हर कोई कृष्ण का शत्रु है । हर कोई । क्योंकि वे कृष्ण के प्रतिद्वंद्वी बनना चाहते हैं ।

कृष्ण कहते हैं कि भोक्तारम: "मैं परम भोक्ता हूँ ।" सर्व-लोक-महेश्वरम् ((भ.गी. ५.२९ "मैं परम स्वामी हूँ ।" और वेद भी पुष्टि करते हैं, ईशावास्यम् इदं सर्वं (ईशोपनिषद १) । "सब कुछ परम भगवान की संपत्ति है ।" सर्वं खल्व इदं ब्रह्म । ये वैदिक आदेश हैं । यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, "जिनसे सब कुछ प्रकट हुआ है ।" जन्मादि अस्य यत: (श्रीमद्भागवतम् १.१.१) । ये वैदिक संस्करण हैं । लेकिन फिर भी, क्योंकि हम शत्रु हैं, "नहीं, कृष्ण स्वामी क्यों होने चाहिए ? मैं स्वामी हूँ । क्यों श्रीकृष्ण ही भगवान हैं । मुझे एक और भगवान मिला है । यहाँ एक और भगवान है ।"