HI/Prabhupada 0330 - हर किसी को व्यक्तिगत रूप से खुद का ख्याल रखना होगा



Lecture on BG 1.26-27 -- London, July 21, 1973

अगर हम सोच रहे हैं कि, "इस भौतिक अस्तित्व में मैं सुरक्षित रहूँगा, समाज, दोस्त, प्रियजन, देश और राजनीति और समाजशास्त्र की सहायता से," "नहीं, नहीं, यह संभव नहीं है, श्रीमान् ।" यह संभव नहीं है । तुम्हें अपना ध्यान रखना होगा । तुम्हारा तथाकथित समाज, दोस्त, प्रेम, देश, राष्ट्र, और यह तुम्हारी मदद करने में कभी भी सक्षम नहीं होंगे । क्योंकि तुम माया के चंगुल में हो। दैवि हि एषा गुणमयी मम माया दुरत्यया (भ.गी. ७.१४) ।

प्रकृते: क्रियमाणानि
गुणै: कर्माणि सर्वश:
अहंकार विमूढात्मा
कर्ताहम् इति मन्यते
(भ.गी. ३.२७) ।

तुम माया के चंगुल में हो । तुम्हारी कोई स्वतंत्रता नहीं है । न ही किसी अौर के पास स्वतंत्रता है तुम्हे बचाने के लिए । यह संभव नहीं है । वही उदाहरण जो मैं कभी-कभी देता हूँ कि तुम हवाई जहाज उड़ाना सीखते हो | तो तुम आकाश में ऊपर उड़ते हो । लेकिन अगर तुम खतरे में हो, तो कोई अन्य हवाई जहाज तुम्हारी मदद नहीं कर सकता है । तुम समाप्त हो जाते हो । इसलिए तुम्हें अपना ध्यान रखने के लिए एक बहुत सावधान पायलट होना चाहिए । इसी प्रकार, इस भौतिक दुनिया में हर किसी को व्यक्तिगत रूप से खुद का ध्यान रखना होगा । कैसे वह माया के चंगुल से बचाया जा सकता है । यही कृष्ण भावनामृत आंदोलन है ।

एक शिक्षक तुम्हें संकेत दे सकता है । आचार्य तुम्हें संकेत दे सकते हैं कि, "तुम इस तरह से बच सकते हो।" लेकिन कर्तव्यों का निष्पादन, यह तुम्हारे हाथ में है । अगर तुम आध्यात्मिक कर्तव्यों का पालन करते हो ठीक से, तो तुम बच जाते हो । अन्यथा, अगर आचार्य तुम्हें शिक्षा देते है, अगर तुम पालन नहीं करते हो, तो वे कैसे बचा सकते हैं ? वे अादेशों से तुम्हें बचा सकते हैं, अपनी कृपा से, जितना संभव हो । लेकिन तुम्हें इसे अपने हाथों में गंभीरता से लेना होगा ।

तो यह समस्या है ... अर्जुन को अब इस समस्या का सामना करना पड़ रहा है । ये सामान्य समस्या है । देहापत्य-कलत्रादिशु । देहापत्य । देह का मतलब है यह शरीर । अापत्य का मतलब है बच्चे । कलत्र का मतलब पत्नी । देहापत्य कलत्रादिशु अात्म सैन्येशु असत्स्व अपि (श्रीमद् भागवतम् २.१.४) । हम सोच रहे हैं कि, "हम अपने इन सैनिकों द्वारा संरक्षित किए जाएँगे । मेरे अपने बेटे हैं, पोते, मेरे दादा, मेरे ससुर, मेरे जीजा, मेरे इतने सारे समाज, दोस्त और प्रेम हैं । " हर कोई उस तरह से सोच रहा है । "मेरा देश, मेरा समुदाय, मेरा तत्वज्ञान, मेरी राजनीति ।" नहीं । कुछ भी नहीं बचा सकता है तुम्हें ।

देहापत्य कलत्रादिशु असत्सु अपि । वे सभी अस्थायी हैं । वे आते हैं और जाते हैं । असत्सु अपि । प्रमत्तो तस्य निधनम पश्यन्न अपि न पश्यति । जो बहुत ज़्यादा इस समाज, दोस्ती और प्रिय से जुड़ा हुआ है, वह प्रमत्त है । प्रमत्त का मतलब है पागल, पागल आदमी । पश्यन्न अपि न तस्य निधनम । वे देखता नहीं है । हालांकि वह देख रहा है कि, "मेरे पिता की मृत्यु हो गई है । जब मैं एक बच्चा था, मेरे पिता मुझे संरक्षण दे रहे थे । अब मेरे पिता नहीं रहे । मुझे कौन संरक्षण दे रहा है ? क्या मेरे पिता मुझे सुरक्षा देने के लिए जिंदा है ? मुझे कौन संरक्षण दे रहा है ? मेरी माँ मुझे संरक्षण दे रही थी । अब कौन मुझे संरक्षण दे रहा है ? मैं परिवार में था, मेरे पुत्र, मेरी बेटियाँ, मेरी पत्नी, लेकिन मैंने उन्हें छोड़ दिया है, अब कौन मुझे संरक्षण दे रहा है ? " दरअसल कृष्ण हमेशा तुम्हें संरक्षण देते हैं । न की तुम्हारा समाज, दोस्ती और प्रियजन । वे खत्म हो जाएँगे ।