HI/Prabhupada 0501 - हम चिंता से मुक्त नहीं हो सकते हैं जब तक हम कृष्ण भावनामृत को नहीं अपनाते हैं



Lecture on BG 2.15 -- Hyderabad, November 21, 1972

तो तुम खुश नहीं हो सकते हो । ये लड़के और ये लड़कियॉ, अमेरिकी, अमेरिकी, यूरोपीय, उन सभी नें इस मोटर गाड़ी सभ्यता का स्वाद चखा है । बहुत अच्छी तरह से चखा है । मोटर गाड़ी, नाइट क्लब और पीना, उन्होंने बहुत अच्छी तरह से चखा है । कोई खुशी नहीं है । इसलिए वे कृष्ण भावनामृत में आए हैं । इसलिए, नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत: । अभाव: अौर सत: । तो हम दुखी हैं असत, जो नहीं है, को स्वीकार करने के कारण । यही प्रहलाद महाराज द्वारा दिया गया विवरण है: सदा समुद्विग्न-धीयाम असद-ग्रहात (श्रीमद भागवतम ७.५.५)| सदा समुद्विग्न-धीयाम । हम हमेशा चिंताओं से भरे हैं, परेशान हैं । यह एक तथ्य है ।

हम में से हर कोई, चिंताओं से भरा है । क्यों? असद-ग्रहात । कयोंकि हमने इस भौतिक शरीर को स्वीकार किया है । असद-ग्रहात । तद साधु मन्ये असुर-वर्य देहिनाम सदा-समुद्विग्न-धियाम । देहिनाम । देहिनाम का मतलब है... देह और देही, हमने पहले ही चर्चा की है । देही का मतलब है शरीर का मालिक । तो हर कोई देही है, जानवर या इंसान या पेड़ या कोई भी । हर जीव नें एक भौतिक शरीर को स्वीकार किया है । इसलिए वे देही कहा जाता है । तो देहिनाम, हर देहि, क्योंकि उसने इस भौतिक शरीर को स्वीकार किया है, वह हमेशा चिंता से भरा है ।

तो हम चिंता से मुक्त नहीं हो सकते जब तक हम कृष्ण भावनामृत को नहीं अपनाते । यह संभव नहीं है । तुम्हे कृष्ण के प्रति जागरूक होना होगा । ब्रह्म भूत: प्रसन्नात्मा (भ.गी. १८.५४) - तुरंत तुम चिंता से मुक्त हो जाते हो । अगर तुम कृष्ण भावनामृत के मंच तक नहीं आते हो, तो तुम हमेशा चिंताओं से भरे रहोगे । सदा समुद्विग्न धियाम असद-ग्रहात, हित्वात्म पातम गृहम अंध-कूपम, वनम गतो यद धरिम अाश्रयेत (श्रीमद भागवतम ७.५.५)| यही प्रहलाद महाराज हमें दिशा दे रहे हैं कि अगर तुम चिंता की इस स्थिति से राहत पाना चाहते हो, सदा समुद्विग्न धियाम, फिर हित्वात्म पातम, हित्वात्म पातम गृहम अंध-कूपम... गृहम अंध-कूपम । गृहम का मतलब है... इतने सारे अर्थ हैं । विशेष रूप से यह मतलब है: घर । घर । घर से जुड़ा हुआ । हमारी वैदिक सभ्यता है, घर से दूर चले जाअो । घर से दूर चले जाअो । वानप्रस्थ लेना, सन्यास लेना । मृत्यु के अंतिम क्षण तक परिवार का सदस्य, दादा या परदादा के रूप में रहना नहीं । यह हमारी वैदिक सभ्यता नहीं है । जैसे ही हम बड़े हो जाते हैं, पंचाशोर्ध्वम वनम व्रजेत, उसे बाहर निकलना चाहिए गृहम अंध-कूपम ।

गृहम अंध-कूपम, अगर हम चर्चा करें, तो बहुत बेस्वाद हो जाएगा । लेकिन हमें शास्त्र से चर्चा करना होगा कि गृह क्या है । गृह, यह है... एक और शब्द है, अंगनाश्रयम कहा जाता है । अंगना । अंगना का मतलब है औरत । पत्नी की सुरक्षा में रहना, अंगनाश्रय । तो शास्त्र सिफारिश करता है कि तुम अंगनाश्रय को त्यागो, परमहंस-अाश्रय को जाअो । तो तम्हारा जीवन बच जाएगा । अन्यथा, जैसे प्रहलाद महाराज कहते हैं, गृहम अंध-कूपम, "अगर तुम तथाकथित पारिवारिक जीवन के इस अंधेरे कुएं में हमेशा अपने आप को रखोगे, तो तुम कभी खुश नहीं रहोगे ।" आत्म-पातम । अात्म-पातम मतलब है कि तुम आध्यात्मिक जीवन को कभी नहीं समझोगे । बेशक, हमेशा नहीं, लेकिन आम तौर पर । आम तौर पर, जो बहुत ज्यादा पारिवारिक जीवन या विस्तारित परिवार के जीवन से जुड़े होते हैं... विस्तारित- परिवारिक जीवन, फिर समाज जीवन, फिर सामुदायिक जीवन, फिर राष्ट्रीय जीवन, फिर अंतरराष्ट्रीय जीवन । वे सभी गृहम अंध-कूपम हैं । सभी गृहम अंध-कूपम ।