HI/Prabhupada 0540 - एक व्यक्ति की पूजा करना सबसे ऊँचे व्यक्तित्व के रूप में, क्रांतिकारी माना जाता है



Sri Vyasa-puja -- Hyderabad, August 19, 1976

श्रीपाद संपत भट्टाचार्य, देवियों और सज्जनों: "मैं अापका धन्यवाद करना चाहता हूँ कि अाप कृपा करके इस व्यास पूजा समारोह में पधारे हैं । व्यास पूजा...यह आसन जहाँ उन्होंने मुझे बैठाया है, इसे व्यासासन कहा जाता है । गुरु व्यासदेव के प्रतिनिधि हैं । आप में से हर किसी ने व्यासदेव का नाम सुना होगा, वेद व्यास । तो जो भी इस महान आचार्य,व्यासदेव, का प्रतिनिधित्व करता है, उसे व्यास-आसन पर बैठने की अनुमति दी गई है । तो व्यास पूजा... गुरु, व्यासदेव के प्रतिनिधि हैं, इसलिए उनके जन्मदिन की सालगिरह को व्यास पूजा के रूप में स्वीकार किया जाता है ।

अब मुझे अपनी स्थिति को समझाना चाहिए क्योंकि इन दिनों में, एक व्यक्ति की सबसे ऊँचे व्यक्तित्व के रूप में पूजा करना कुछ क्रांतिकारी है । क्योंकि उन्हे लोकतंत्र पसंद है, वोट से किसी को भी ऊपर उठाया जाता है चाहे वह कितना भी बदमाश क्यों न हो । लेकिन हमारी प्रणाली, गुरु परम्परा प्रणाली, अलग है । हमारी प्रणाली, अगर तुम वैदिक ज्ञान को स्वीकार नहीं करते हो गुरू परम्परा प्रणाली के माध्यम से, यह बेकार है । तुम वैदिक भाषा की एक व्याख्या निर्माण नहीं कर सकते हो । गोबर की तरह । गाय का गोबर एक जानवर का मल है ।

वैदिक आज्ञा है कि अगर तुम गोबर को छुते हो..., किसी भी जानवर के मल को, तो तुम्हें तुरंत स्नान करना होगा और अपने आप को शुद्ध करना होगा । लेकिन वैदिक आज्ञा यह भी है कि, गोबर किसी भी अशुद्ध जगह को शुद्ध कर सकता है । विशेष रूप से हम हिंदू, हम इसे स्वीकार करते हैं । अब तर्क से यह विरोधाभासी है । एक जानवर का मल अशुद्ध है, और वैदिक आज्ञा है कि गोबर शुद्ध है । वास्तव में हम गोबर को शुद्ध मानते हैं, किसी भी जगह को शुद्ध करने के लिए । पंच-गव्य में से एक गोबर है, गोमूत्र है । तो यह विरोधाभासी प्रतीत होता है, वैदिक आज्ञा । लेकिन फिर भी हम स्वीकार करते हैं क्योंकि यह वैदिक आदेश है । यही... यही वेदों की स्वीकृति है । वैसे ही जैसे भगवद गीता ।

भगवद गीता, इतने सारे दुष्ट हैं, वे काट देते हैं: "मुझे यह पसंद है, मुझे यह पसंद नहीं है ।" नहीं । अर्जुन कहते हैं सर्वम एतद ऋतम मन्ये (भ.गी. १०.१४) । यही वेदों की समझ है । अगर एक बदमाश काटता है, कटौती करता है, "मुझे यह पसंद नहीं है, मैं अर्थघटन करूँगा" यह भगवद गीता नहीं है । भगवद गीता का मतलब है तुम्हें यथार्थ स्वीकार करना होगा । यही भगवद गीता है ।

इसलिए हम भगवद गीता यथार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं । कृष्ण, भगवद गीता के वक्ता, कहते हैं, वे कहते हैं: स कालेनेह योगो नष्ट: परन्तप (भ.गी. ४.२) । "मेरे प्रिय अर्जुन, यह भगवद गीता का विज्ञान," इमम विवस्वते योगम प्रोक्तवान अहम अव्ययम (भ.गी. ४.१), "मैंने यह पहली बार सूर्य देव से कहा था, और उन्होंने अपने पुत्र से कहा, " विवस्वान मनवे प्राह । वैवस्वत मनु । मनुर इक्ष्वाकवे अब्रवीत । एवम परम्परा-प्राप्तम इमम राजर्षयो विदु: (भ.गी. ४.२) । यह प्रक्रिया है । स कालेनेह योगो नष्ट: परन्तप । जो इस परम्परा प्रणाली के माध्यम से नहीं आते हैं, अगर वह वैदिक साहित्य का कोई भी अर्थघटन प्रस्तुत करता है, यह बेकार है । यह बेकार है । इसका कोई मतलब नहीं है । योगो नष्ट: परन्तप । तो यह चल रहा है । इसका कोई मतलब नहीं है ।