HI/Prabhupada 0546 - जितना संभव हो उतनी किताबें प्रकाशित करो और दुनिया भर में वितरित करने के लिए प्रयास करें



His Divine Grace Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Gosvami Prabhupada's Appearance Day, Lecture -- Mayapur, February 21, 1976

प्रभुपाद: तो जब तक जीव इस भौतिक संसार में है, उसे भौतिक प्रकृति के विभिन्न गुणों के साथ संबद्ध रखना पड़ेगा । वही उदाहरण । वैसे ही जैसे आग की चिंगारी नीचे ज़मीन पर गिर जाती है । तो ज़मीन, अलग-अलग स्थिति उसे मिलती है । एक स्थिति है सूखी घास, एक स्थिति है गीली घास । और एक स्थिति बस ज़मीन है । तो इसी तरह तीन स्थितियाँ हैं, सत्व-गुण, रजो-गुण, तमो-गुण । तो सत्व-गुण का मतलब है अगर चिंगारी सूखी घास पर नीचे गिर जाती है, तो वह घास को जला देती है । तो सत्व-गुण में, प्रकाश, इस उग्र गुणवत्ता का प्रदर्शन होता है । लेकिन अगर यह पानी पर गिर जाती है, गीली ज़मीन पर, तो यह पूरी तरह से बुझ जाती है । तीन चरण ।

इसी तरह, जब हम इस भौतिक दुनिया में नीचे आते हैं, अगर हम सत्व-गुण के साथ संबद्ध रखते हैं, तो आध्यात्मिक जीवन की कुछ उम्मीद है । और अगर हम रजो-गुण में हैं तो कोई उम्मीद नहीं है, और तमो-गुण, कोई उम्मीद नहीं है । रजस-तम: । रजस-तमो-भावो काम-लोभादयश्च ये । रजस-तम: । अगर हम रजो-गुण अौर तमो-गुण के साथ जुड़ते हैं, तो हमारी इच्छाएँ कामुक और लोभी हो जाएँगी । काम-लोभादयश्च ये । ततो रजस-तमो-भाव काम-लोभादयश्च । और अगर हम हमारे सत्व-गुण की गुणवत्ता को बढ़ाते हैं, तो यह काम-लोभादय, तो ये दो चीज़े, हमें नहीं छू सकती । हम काम-लोभ से थोड़ा बच सकते हैं । तो अगर सत्व-गुण में... इस श्रीमद भागवतम् में कहा गया है:

श्रृण्वताम स्व-कथा: कृष्ण:
पुण्य-श्रवण-कीर्तन:
हृदि अन्त:स्थो हि अभद्राणि
विधुनोति सुहृत्सताम
(श्रीमद भागवतम १.२.१७)

तो हमें इन सभी तीन गुणों को पार करना होगा, सत्व-गुण, रजो-गुण तमो-गुण, विशेष रूप से रजो-गुण, तमो-गुण । अगर हम ऐसा करने की कोशिश नहीं करते हैं, तो आध्यात्मिक मुक्ति की, या भौतिक उलझाव से मुक्ति की कोई उम्मीद नहीं है। लेकिन कलि-युग में, कोई व्यावहारिक सत्व-गुण है ही नहीं, केवल रजस, रजो-गुण, तमो-गुण, विशेष रूप से तमो-गुण । जघन्य-गुण-वृत्ति-स्थ: (भ.गी. १४.१८) । कलौ शूद्र-सम्भव: । इसलिए श्रीचैतन्य महाप्रभु ने इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन को फैलाया, हरे कृष्ण मंत्र जप । तो इस जगह से श्रीचैतन्य महाप्रभु नें इस आंदोलन की शुरुआत की थी, कृष्ण भावनामृत आंदोलन, पूरे भारत भर में, और उनकी इच्छा थी कि पृथ्विते अाछे यत नगरादि ग्राम, "तो जितने भी शहर और गाँव हैं, इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन का प्रसार किया जाना चाहिए ।"(चैतन्य भागवत अन्त्य खंड ४.१२६)

तो यह कृष्ण चेतना आंदोलन अब तुम्हारे हाथ में है । बेशक, १९६५ में (१९२२), भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर, वे मुझसे इस संबंध में कुछ अपेक्षा रखते थे । वे चाहते थे अपने सारे शिष्यों से । विशेष रूप से उन्होंने कई बार ज़ोर दिया कि, "तुम ऐसा करो ।" जो कुछ भी तुमने सीखा है, तुम अंग्रेजी भाषा में उसका विस्तार करने का प्रयास करो ।" और १९३३ में, जब वे राधा कुण्ड में थे, मैं उस समय मुंबई में था अपने व्यावसायिक जीवन के संबंध में । तो मैं उनसे मिलने आया था, और मेरा एक दोस्त मुंबई में कुछ ज़मीन देना चाहता था, बंबई गौड़ीय मठ शुरू करने के लिए । वह मेरा दोस्त है ।

तो यह एक लंबी कहानी है, लेकिन मैं यह बयान देने की इच्छा रखता हूँ, भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी का मिशन । तो उस समय मेरे एक गुरुभाई भी वहाँ मौजूद थे । उन्होंने मुझे याद दिलाया मेरे दोस्त के दान के बारे में, और भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद ने तुरंत ज़मीन ले ली । उन्होंने कहा कि, "बहुत सारे मंदिरों की स्थापना करने की कोई ज़रूरत नहीं है । बेहतर है कि हम कुछ पुस्तकें प्रकाशित करें ।" उन्होंने ऐसा कहा । उन्होंने कहा कि, "हमने शुरु किया है हमारा, उल्टाड़ांगा में यह गौड़ीय मठ । किराया बहुत कम था, और अगर हम २ से २५० रुपए इकट्ठा कर सकते, यह चल रहा था, बहुत अच्छे से । लेकिन जब से इस जे.वी. दत्ता ने यह पत्थर दिया है हमें, संगमरमर पत्थर, ठाकुरबाड़ी, हमारी प्रतिस्पर्धा शिष्यों के बीच बढ़ गई है, तो अब यह मुझे और पसंद नहीं है । बल्कि, मैं पसंद करूँगा अगर हम संगमरमर पत्थर को बाहर निकालें और बेच दे और कुछ किताबों का प्रकाशन करें ।" तो मैनें यह मुद्दा लिया, और उन्होंने भी विशेष रूप से मुझे सलाह दी कि, "अगर तुम्हें पैसा मिलता है, तो तुम किताबें प्रकाशित करने का प्रयास करो ।" तो उनके आशीर्वाद से यह बहुत सफल हुआ है आपके सहयोग से । अब हमारी किताबें दुनिया भर में बेची जा रही हैं, और बहुत संतोषजनक बिक्री की जा रही है । तो भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर के आविर्भाव के इस विशेष दिन पर, उनके शब्दों को याद करने की कोशिश करो, कि वह चाहते थे कि हमारे तत्वज्ञान के बारे में कई किताबें प्रकाशित की जानी चाहिए, और यह विशेष रूप से अंग्रेजी जानने वाली जनता को दी जानी चाहिए, क्योंकि अंग्रेजी भाषा अब दुनिया की भाषा है । हम दुनिया भर में दौरा कर रहे हैं । तो कहीं भी हम अंग्रेजी बोलते हैं, यह समझी जाती है, कुछ स्थानों को छोड़कर ।

तो इसलिए इस दिन पर, विशेष रूप से, भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर के आगमन पर, मैं विशेष रूप से अपने शिष्यों से अनुरोध करता हूँ जो मुझे सहयोग कर रहे हैं, कि जितना संभव हो उतनी किताबें प्रकाशित करो और पूरी दुनिया में वितरित करने का प्रयास करो । यह श्री चैतन्य महाप्रभु अौर भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर को संतुष्टी देगा ।

बहुत-बहुत धन्यवाद ।

भक्त: जय श्रील प्रभुपाद ।