HI/Prabhupada 0553 - तुम्हे हिमालय जाने की आवश्यकता नहीं है । तुम बस, लॉस एंजिल्स शहर में रहो



Lecture on BG 2.62-72 -- Los Angeles, December 19, 1968

प्रभुपाद: तो योगी और अन्य तरीके, वे बल द्वारा इंद्रियों पर नियंत्रण करने की कोशिश कर रहे हैं । "मैं हिमालय जाऊँगा । मैं किसी भी सुंदर महिला को अब देखूँगा नहीं । मैं अपनी आँखें बन्द कर लूँगा ।" ये जबरजस्ती हैं । तुम अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित नहीं कर सकते । ऐसे कई उदाहरण हैं । तुम्हे हिमालय जाने की आवश्यकता नहीं है । तुम बस, लॉस एंजलिस शहर में रहो और कृष्ण को देखने के लिए अपनी आँखें को संलग्न करो, तुम हिमालय में गए व्यक्ति की तुलना में बेहतर हो । तुम अन्य सभी बातों को भूल जाओगे । यह हमारी प्रक्रिया है ।

तुम्हे अपनी स्थिति को बदलने की आवश्यकता नहीं है । तुम बस भगवद गीता यथारूप को सुनने में अपने कान को संलग्न करो, तुम सब बकवास भूल जाओगे । तुम अर्च विग्रह, कृष्ण की, सुंदरता को देखने के लिए अपनी आंखों को संलग्न करो । तुम कृष्ण प्रसाद का स्वाद लेने में अपनी जीभ को व्यस्त करो । तुम इस मंदिर में आने के लिए अपने पैर को संलग्न करो । तुम कृष्ण के लिए काम करने में अपने हाथों को व्यस्त करो । तुम कृष्ण को पेश किए गए फूलों की सुगंध को सूंघने में अपने नाक को संलग्न करो । फिर तुम्हारी इन्द्रियॉ कहॉ जाऍगी ? वे सभी तरफ से मोहित है । पूर्णता सुनिश्चित है । तुम्हे जबरन अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित करने के आवश्यकता नहीं है, मत देखो, यह मत करो, वह मत करो । नहीं । तुम्हे अपने काम को बदलना है, स्थिति को । यह तुम्हारी मदद करेगा । अागे पढो ।

तमाल कृष्ण: तात्पर्य "यह पहले से ही बताया जा चुका है कि कृत्रिम विधि से इंद्रियों पर बाह्यरुप से नियंत्रण किया जा सकता है, लेकिन जब तक इन्द्रियाँ भगवान की दिव्य सेवा में नहीं लगाई जातीं तब तक नीचे गिरने की सम्भावना बनी रहती है । यद्यपी पूर्णतया कृष्ण भावनाभावित व्यक्ति उपर से विषयी-स्तर पर क्यों न दिखे, किन्तु कृष्ण भावनाभावित होने से, वह कामुक कर्मों में अासक्त नहीं होता । उसाक एकमात्र उद्देश्य तो कृष्ण को प्रसन्न करना रहता है, अन्य कुछ नहीं । अत: वह समस्त अासक्ति तथा विरक्ति से मुक्त होता है । कृष्ण की इच्छा होने पर भक्त सामान्यतया अवांछित कार्य भी कर सकता है, किन्तु कृष्ण की इच्छा नहीं है तो वह उस कार्य को भी नहीं करेगा जिसे वह सामान्य रूप से अपने लिए करता हो । अत: कर्म करना या ना करना उसके वश में रहता है क्योंकि वो केवल कृष्ण के निर्देश के अनुसार ही कार्य करता है । यही चेतना भगवान की अहैतुकी कृपा है जिसकी प्राप्ति भक्त को इन्द्रियों से अासक्त होते हुए भी हो सकती है ।"

६५: "इस प्रकार के कृष्णभावनामृत में तुष्ट व्यक्ति के लिए संसार के तीनों ताप नष्ट हो जाते हैं । एसी तुष्ट चेतना होने पर उसकी बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है ।" ६६: "जो कृष्णभावनामृत में परमेश्वर से सम्बन्धित नहीं है उसकी न तो बुद्धि दिव्य होती है अौर न ही मन स्थिर होता है, जिसके बिना शान्ति की कोई सम्भावना नहीं है । अौर शान्ति के बिना सुख हो भी कैसे सकता है ?" ६७...

प्रभुपाद: इस भोतिक दुनिया में हर कोई, वे शांति के पीछे भागते हैं, लेकिन वे अपनी इन्द्रयों को नियंत्रित करना नहीं चाहते । यह संभव नहीं है । जैसे तुम रोगग्रस्त हो, और डॉक्टर कहता है कि "तुम यह दवा तो, तुम यह आहार लो" लेकिन तुम नियंत्रण नहीं कर सकते । तुम कुछ भी ले रहे हो अपने मन से, चिकित्सक के अादेश के खिलाफ | तो तुम कैसे ठीक हो सकते हो ? इसी तरह, हम इस भौतिक दुनिया की अराजक की हालत का इलाज चाहते हैं, हम शांति और समृद्धि चाहते हैं, लेकिन हम इंद्रियों पर नियंत्रण करने के लिए तैयार नहीं हैं । हमें पता नहीं है कि इंद्रियों को नियंत्रित कैसे किया जाता है । हमें इंद्रियों को नियंत्रित करने का वास्तविक योग सिद्धांत पता नहीं हैं । तो शांति की कोई संभावना नहीं है ।

कुत: शांतिर अयुक्तस्य । यह सटीक शब्द भगवद गीता में है | अगर तुम कृष्ण भावनामृत में नहीं लगे हुए हो, तो शांति की कोई संभावना नहीं है । कृत्रिम रूप से, तुम इसके लिए प्रयास कर सकते हो । यह संभव नहीं है ।