HI/Prabhupada 0632 -जब एहसास होता है कि मैं यह शरीर नहीं हूं , तो तुरंत प्रकृति के तीनों गुणों से परे हो जाता हूँ



Lecture on BG 2.28 -- London, August 30, 1973

इसलिए शंकराचार्य नें यह सिद्धांत दिया: ब्रह्म सत्यम जगन मिथ्या । ब्रह्म का मतलब है आत्मा वास्तव में तथ्य है, भौतिक अभिव्यक्ति नहीं । भौतिक अभिव्यक्ति, ज़ाहिर है, वे कहते हैं झूठ है । हम झूठ नहीं कहते । हम अस्थायी कहते हैं । इसलिए हमारी मुख्य बात यह है कि मैं अस्थायी नहीं हूँ । मेरा शरीर अस्थायी है । अब मैं इस शरीर के लिए काम कर रहा हूँ । यह भ्रम है । अहम ममेति (श्रीमद भागवतम ५.५.८) ।

तो असली तथ्य क्या है ? वास्तविक तथ्य यह है कि मैं आध्यात्मिक कण हूँ, और पूर्ण अात्मा कृष्ण हैं या भगवान । इसलिए, भगवान का अभिन्न अंग होने के कारण भगवान की सेवा करना मेरा कर्तव्य है । यही आध्यात्मिक जीवन है, भक्ति योग । यही स्वरूप कहा जाता है । और एक अन्य स्थान पर, भगवद गीता पुष्टि करता है कि स गुणान समतीत्यैतान ब्रह्म भूयाय कल्पते (भ.गी. १४.२६) । जब मुझे एहसास होता है कि मैं यह शरीर नहीं हूं, तो तुरंत मैं तीनों प्रकृति के गुणों से परे हो जाता हूँ, सत्व गुण, रजो गुण, तमो गुण से परे । जीवन की शारीरिक अवधारणा के तहत, मैं किसी एक प्रकृति के गुण से प्रभावित हूँ अौर उसके तहत काम कर रहा हूँ ।

भागवतम में भी यह कहा गया है: यया सम्मोहितो जीव अात्मानम त्रि-गुणात्मकम मनुते अनर्थम (श्रीमद भागवतम १.७.५) | तो क्योंकि मैंने इस भौितक शरीर को स्वीकार किया है जो प्रकृति के किसी एक गुण से बना है, और उससे अपनी पहचान बनाना, इसलिए मैंने इतने सारे अनर्थ बनाए हैं । अनर्थ का मलतब है अवांछित चीजें । तद कृतम चाभीपद्यते । और शारीरिक संबंधों में इतने सारे अवांछित चीजें बनाने के बाद, मैं सोच में डूबा हूँ कि "मैं फलाना राष्ट्र का हूँ । इसलिए ऐसा करना मेरा कर्तव्य है, अपने देश के लिए यह करना है, या समाज के लिए, या परिवार के लिए, या अपने लिए, या अपनी पत्नी के लिए, मेरे बच्चे ।" यह वैदिक अवधारणा के अनुसार, यह भ्रम है ।

अहम ममेति (श्रीमद भागवतम ५.५.८) । जनस्य मोहो अयम । मोह का मतलब है भ्रम । मैं भ्रामक हालात पैदा कर रहा हूँ और उलझ रहा हूँ । यह मेरी स्थिति है । लेकिन मेरा असली उद्देश्य है कैसे इस भ्रम से बाहर निकलें और अपने मूल चेतना में आऍ, कृष्ण भावनामृत, और फिर मैं वापस अाता हूँ । कृष्ण भावनामृत का मतलब है आध्यात्मिक शरीर । जैसे ही मैं अपने आध्यात्मिक शरीर के आधार पर कार्य करता हूँ, इसे मुक्ति कहा जाता है । यह अावश्यक है । फिर मैं ज्ञान के अनन्त जीवन में आनंदपूर्वक रहता हूँ । यही मेरी समस्या है । लेकिन लोगों को जीवन के इस शारीरिक अवधारणा पर शिक्षित किया जा रहा है, और वे समस्याएं पैदा कर रहे हैं, और समस्याओं का समाधान करने के लिए, वे पापी गतिविधियों में उलझ रहे हैं ।

जैसे आज सुबह हम गर्भ के भीतर शिशु के शरीर की हत्या के बारे में चर्चा कर रहे थे, गर्भपात । क्योंकि हम नहीं जानते कि उस बच्चे के शरीर के भीतर की आत्मा... वो नहीं मारा जा सकता । उसे नहीं मारा जा सकता है । लेकिन वह भी समझाया गया है, आत्मा की शाश्वतता को जो जानता है, वह किसी को मारता नहीं है, न तो आत्मा मरती है । लेकिन हम समस्या पैदा कर रहे हैं । क्योंकि आत्मा नें इस शरीर की शरण ली है और तथाकथित चिकित्सा विज्ञान की सलाह उस शरीर को नष्ट करने की, इसका मतलब है वह उलझ रहा है । जो व्यक्ति सलाह दे रहा है... मुझे पता लगा है कि एक सज्जन यहाँ आते हैं, उनकी पत्नी एक चिकित्सतक है और उसका काम है गर्भवती पत्नी की जांच करना, महिला । और सलाह देना कि बच्चा मारा जा सकता है या नहीं । यही काम है ।