HI/Prabhupada 0653 - अगर मेरे पिता एक रूप नहीं है, तो मुझे यह रूप कहाँ से प्राप्त हुआ



Lecture on BG 6.6-12 -- Los Angeles, February 15, 1969

भक्त: "पद्म पुराण में कहा गया है, 'कोई भी कृष्ण के नाम, रूप, गुण और लीला के दिव्य स्वरूप को नहीं समझ सकता है अपनी दूषित इंद्रियों के माध्यम से । केवल जब कोई भगवान की दिव्य सेवा से आध्यात्मिक स्तर पर संतृप्त हो जाता है, तभी दिव्य नाम, रूप, गुण और भगवान की लीलाओं का उसे पता चलाता है ।"

प्रभुपाद: हाँ, यह बहुत महत्वपूर्ण है । अब, कृष्ण, हम परम भगवान के रूप में कृष्ण को स्वीकार कर रहे हैं । अब, हम कैसे सर्वोच्च भगवान के रूप में कृष्ण को स्वीकार करते हैं ? क्योंकि यह वैदिक साहित्य में कहा गया है, जैसे ब्रह्म संहिता में, ईश्वर: परम: कृष्ण: सच-चिद-अानन्द विग्रह: (ब्रह्मसंहिता ५.१) | कल्पना... जो रजो गुण अोर तमो गुण में हैं, वे भगवान के रूप की कल्पना कर रहे हैं । और जब वे भ्रमित होते हैं, वे कहते हैं, "ओह, कोई व्यक्तिगत भगवान नहीं है । यह सब अवैयक्तिक या शून्य है ।" वो निराशा है । लेकिन वास्तव में, भगवान का रूप है । क्यों नहीं ?

वेदांत का कहना है, जन्मादि अस्य यत: (श्रीमद भागवतम १.१.१): परम निरपेक्ष सत्य वह है जिससे सब कुछ उत्पन्न होता है । अब हमारे रूप हैं । तो हमें, होना चाहिए... न केवल हम, जीव के विभिन्न प्रकार के रूप होते हैं । वे कहाँ से अाते हैं ? यह रूप कहाँ से उत्पन्न होता है? यह बहुत सामान्य ज्ञान का प्रश्न है । अगर भगवान एक व्यक्ति नहीं है, तो उनकी संतान व्यक्ति कैसे बन गई ?

अगर तुम्हारे पिता एक व्यक्ति नहीं है, तो तुम कैसे एक व्यक्ति बन गए ? यह बहुत सामान्य ज्ञान का प्रश्न है । अगर मेरे पिता का एक रूप नहीं है, तो मुझे यह रूप कहाँ से प्राप्त हुअा ? लेकिन लोग कल्पना करते हैं क्योंकि वे निराश हैं, जब वे देखते हैं कि यह रुप परेशान करने वाला है, इसलिए भगवान निराकार होने चाहिए । यह एक विपरीत अवधारणा है रुप की । लेकिन ब्रह्म संहिता कहती है की नहीं । भगवान का रूप है, लेकिन वे सच-चिद-अानन्द विग्रह: हैं ।

ईश्वर: परम: कृष्ण: सच-चिद-अानन्द विग्रह: (ब्रह्मसंहिता ५.१) ।

सत, चित, आनंद । सत का मतलब है शाश्वत । सत का अर्थ है शाश्वत, चित का मतलब है ज्ञान और आनंद का मतलब है प्रसन्नता । तो भगवान का रूप है, लेकिन उनका रूप एसा है जो जो प्रसन्नता से भरा है, ज्ञान से भरा है, और शाश्वत है । अब तुम अपने शरीर की तुलना करो । तुम्हारा शरीर सनातन नहीं है और न ही प्रसन्नता से भरा है और न ही ज्ञान से भरा है । इसलिए भगवान का रूप है, लेकिन उनका एक अलग रूप है । लेकिन जैसे ही हम रूप की बात करते हैं, हम सोचते हैं कि रूप को इस तरह का होना चाहिए । इसलिए विपरीत, कोई रूप नहीं । यह ज्ञान नहीं है । यह ज्ञान नहीं है । इसलिए पद्म पुराण में यह कहा जाता है कि तुम नहीं समझ सकते हो, इन भौतिक इंद्रियों के साथ भगवान के रूप, नाम, गुण को ।

अत: श्री कृष्ण नामादि न भवेद ग्राह्यम इन्द्रियै: (चैतन्य चरितामृत मध्य १७.१३६) |

अपनी कल्पना से, क्योंकि तुम्हारी इन्द्रियॉ अपूर्ण हैं, तुम कैसे कल्पना कर सकते हो परम भगवान के बारे में ? यह संभव नहीं है । तो यह कैसे संभव है ? सेवन्मुखे हि जिह्वादौ । अगर तुम अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित करते हो, अगर तुम अपनी इन्द्रियों को शुद्ध करते हो, वह शुद्ध इन्द्रियॉ तुम्हे भगवान को देखने में मदद करेंगी । जैसे अगर तुम्हे कोई विमारी है, आंखों में मोतियाबिंद है, इसका यह मतलब नहीं है कि तुम देख नहीं सकते हो । क्योंकि तुम्हारी आंखें मोतियाबिंद से पीड़ित हैं, तुम देख नहीं सकते हो । इसका मतलब यह नहीं है कि कुछ देखने लायक नहीं है। तुम नहीं देख सकते हो ।

इसी तरह, तुम भगवान के रूप की कल्पना अभी नहीं कर सकते हो, लेकिन अगर तुम्हारा मोतियाबिंद निकाल दिया जाता है ,तुम देख सकते हो । यह आवश्यक है ।

प्रेमान्जन छुरित भक्तो विलोचनेन संत: सदैव हृदयेशु विलोकयंति (ब्रह्मसंहिता ५.३८) |

ब्रह्म संहिता कहता है कि जिन भक्तों की आँखों में भगवान के प्रेम का मरहम लगा है, ऐसे व्यक्ति, अपने मन में, भगवान को, कृष्ण को, देख रहे हैं, हमेशा, चौबीस घंटे । ऐसा नहीं है कि... तो तुम्हे अपने इन्द्रियों को शुद्ध करने की आवश्यकता है । फिर तुम भगवान का रूप क्या है, यह समझने में सक्षम हो जाअोगे, भगवान के गुण क्या है, भगवान का नाम क्या है, भगवान का साज़-सामान क्या है । भगवान के पास सब कुछ है । ये बातें वैदिक साहित्य में चर्चित हैं । जैसे अपानि पादो जवन गृहीत |

यह कहा जाता है कि भगवान के कोई हाथ या पैर नहीं हैं । लेकिन वे कुछ भी स्वीकार कर सकते हैं जो तुम प्रस्तुत करो । भगवान की कोई आंख, और कान नहीं हैं, लेकिन वे सब कुछ देख सकते हैं और वे सब कुछ सुन सकते हैं । तो ये विरोधाभास हैं । इसका मतलब हैं कि जब भी हम देखने की बात करते हैं, हमें लगता है कि उनकी हमारी तरह आँखें होनी चाहिए । यह हमारी भौतिक अवधारणा है । भगवान की आँखें हैं, वे अंधेरे में भी देख सकते हैं । तुम अंधेरे में नहीं देख सकते हो । तो उनकी अलग आंखें हैं । भगवान सुन सकते हैं । अगर तुम...

भगवान अपने राज्य में हैं जो लाखों और करोड़ों मील दूर है, लेकिन अगर तुम कुछ बोल रहे हो, कुछ फुसफुसा रहे हो, षड्यंत्र, वे सुन सकते हैं । क्योंकि वे तुम्हारे भीतर बैठे हैं । तो तुम भगवान से बच नहीं सकते हो, भगवान की दृष्टि से और भगवान के स्पर्श से ।