HI/Prabhupada 0917 - सारा संसार इन्द्रियों की सेवा कर रहा है, इन्द्रियों का सेवक



730421 - Lecture SB 01.08.29 - Los Angeles

अगर तुम कृष्ण को सजाते हो, तो तुम सज जाते हो। अगर तुम कृष्ण को तृप्त करते हो, तो तुम तृप्त हो जाते हो। अगर तुम कृष्ण को अच्छा भोजन अर्पित करते हो, तो तुम उसे खाते हो। शायद जो लोग मंदिर के बाहर हैं, उन्होंने ऐसे भोजन की कभी कल्पना भी नहीं की होगी। पर क्योंकि उसे कृष्ण को अर्पित किया जा रहा है, इसलिए हमारे पास इसे स्वीकार करने का अवसर है। ये तत्त्वज्ञान है। इसलिए आप कृष्ण को हर प्रकार से तृप्त करने का प्रयत्न करें। तब आप हर प्रकार से तृप्त हो जाएंगे। ये... कृष्ण को आपकी सेवा नहीं चाहिए। परन्तु वे कृपा करके स्वीकार करते हैं।

सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज (भ.गी. १८.६६) | कृष्ण आपसे कह रह हैं कि: "तुम मेरी शरण लो"। इसका मतलब ये नहीं हैं की कृष्ण के पास एक सेवक कम है, और अगर आप उनकी शरण लोगे तो उन्हें फायदा हो जाएगा। (हंसी) कृष्ण करोड़ों सेवक बस अपनी इच्छा से प्रकट कर सकते हैं। मुद्दा यह नहीं है। परन्तु अगर आप कृष्ण की शरण लेते हो, तो तुम बच जाते हो। तुम बच जाते हो। यह तुम्हारा काम है | कृष्ण कहते हैं: "अहम त्वाम सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि" (भ.गी. १८.६६) |

तुम यहाँ पीड़ित हो। बिना किसी आश्रय के। आप देखते हो कितने लोग सड़को पर घूम रहे हैं, कोई दिशा नहीं, कोई जीवन नहीं | हम समुद्र-तट पर जाते हैं। हम कितने सारे लड़के-लड़कियों को देखते हैं, बिना किसी दिशा के, घूम रहे हैं, पता नहीं क्या करे, पूरे परेशान | पर अगर आप कृष्ण की शरण लेते हैं, तब आपको पता चलेगा: "ओह, अब मुझे शरण मिल गयी है" और कोई उलझन नहीं है | और कोई निराशा नहीं है। ये आप अच्छे से समझ सकते हैं | और रोज़ मुझे इतने सारे खत मिलते हैं, किस प्रकार वे कृष्णभावनामृत में आशावान हैं |

तो ऐसा नहीं है की कृष्ण यहाँ कुछ सेवक इकठ्ठा करने के लिए आये थे, ये सत्य नहीं है | अगर हम सहमत होते है... कृष्ण के सेवक बनने के बजाय, हम कितनी सारी चीज़ों के सेवक हैं | हम अपने इन्द्रियों और उनकी गतिविधियों के सेवक हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह। दरअसल पूरा संसार इन्द्रियों की सेवा कर रहा है, इन्द्रियों के सेवक। गोदास | परन्तु अगर हम कृष्ण की इन्द्रियों की सेवा में लग जाएं, तो हम इन्द्रियों के सेवक नहीं रहेंगे |

हम अपनी इन्द्रियों के स्वामी होने चाहिए | क्योकि हम अपनी इन्द्रियों को दूसरी चीज़ों में लिप्त नहीं होने देंगे | वो शक्ति हमें मिलेगी और तब हम सुरक्षित होंगे तो यहाँ कुन्तीदेवी कह रही हैं की: "इस भौतिक संसार में आपका रूप भ्रामक नही हैं, विस्मयकारी है" हम सोच रहे हैं: "कृष्ण का कुछ विशेष कार्य है, मुद्दा है | इसलिए वे यहाँ आये हैं।" नहीं। वे उनकी लीलाएं हैं। उनकी लीलाएं। जिस प्रकार कभी राज्यपाल जेल में निरीक्षण करने जाते हैं। उसे जेल में जाने की आवश्यकता नहीं है। उसे निरीक्षक से सूचना मिलती रहती है | उसे नही... फिर भी वो कभी कभार आता है: "चलो मई देखता हूँ ये लोग कैसे हैं | " इसे लीला कहते हैं। यह उसकी मर्ज़ी है।

ऐसा नहीं है की वह भी जेल के क़ानून से बंधा हुआ है और उसे जेल आना ही है | नहीं, ऐसा नहीं है। पर अगर जेल के कैदी ऐसा सोचे की: "ओह, तो यह राज्यपाल भी जेल में हैँ | तो हम बराबर हैं । हम बराबर हैं । मैं भी राज्यपाल हूँ |" (हंसी) धूर्त व्यक्ति सोचता है "क्योकि कृष्ण आए हैं, अवतरित हुए हैं, इसलिए मैं भी अवतार हूँ | " यह धूर्तता चल रही है।