HI/Prabhupada 0931 - अगर कोई अजन्मा है तो वह कैसे मर सकता है ? मृत्यु का कोई सवाल ही नहीं है



730424 - Lecture SB 01.08.32 - Los Angeles

क्योंकि हम श्री कृष्ण के अंशस्वरूप हैं । कृष्ण अज हैं । अज मतलब जिसका कोई जन्म और मृत्यु नहीं है । तो हम भी अज हैं । हम कैसे अन्यथा हो सकते हैं ? अगर श्री कृष्ण, मैं श्री कृष्ण का अंशस्वरूप हूँ । वही उदाहरण है हम देख सकते हैं । अगर मेरे, अगर मेरे पिता खुश हैं, तो मैं अपने पिता का बेटा हूँ । क्यों मैं नहीं हो सकता, मैं दुखी क्यों रहूँगा ? यह स्वाभाविक निष्कर्ष है । क्योंकि मैं अपने पिता की संपत्ति का आनंद लूँगा जैसे मेरे पिता आनंद ले रहे हैं ।

इसी प्रकार भगवान सर्व शक्तिशाली हैं । कृष्ण, सर्व सुंदर, सर्व-ज्ञान, सर्व शक्तिशाली, सब कुछ पूर्ण । तो मैं पूर्ण नहीं हूँ, लेकिन क्योंकि मैं अंशस्वरूप हूँ, तो मैं हूँ, अंशस्वरूप मेरे पास भगवान की सारी गुणवत्ता है । ऐसा नहीं है... तो भगवान मरते नहीं हैं । वे अज हैं । तो मैं भी नहीं मरूँगा । यह मेरी स्थिति है । और यह भगवद गीता में समझाया गया है की: न जायते न म्रियते वा कदाचित (भ गी २.२०) । जब वे आत्मा के बारे में वर्णन करत हैं, श्री कृष्ण कहते हैं, कि आत्मा जन्म नहीं लेता है, न जायते, न म्रियते । अौर अगर कोई पैदा नहीं होता है, तो वह कैसे मर सकता है ? मौत का कोई सवाल ही नहीं है । मौत उसके लिए है जिसका जन्म होता है ।

अगर किसी का जन्म नहीं है, तो मौत का कोई सवाल ही नहीं है । न जायते न म्रियते वा । तो हम श्री कृष्ण का अंशस्वरूप हैं । जैसे श्री कृष्ण अज हैं, हम भी अज हैं । यह हम नहीं जानते हैं । यह अज्ञानता है । यह अज्ञानता है । वे वैज्ञानिक शोध कर रहे हैं, लेकिन वे नहीं जानते हैं कि हर जीव अात्मा है । उसका कोई जन्म नहीं है । उसकी कोई मृत्यु नहीं है । वह शाश्वत है । नित्य: शाश्वतो अयम, अनन्त, पुराण:, हालांकि सबसे पुराना, न हन्यते । निष्कर्ष: न हन्यते हन्यमाने शरीरे (भ गी २.२०) । तो इस शरीर के विनाश के बाद आत्मा मरती नहीं है । वह एक और शरीर स्वीकार करता है । यह हमारी बीमारी है । यह भव-रोग कहा जाता है ।

भव-रोग मतलब भौतिक रोग । तो श्री कृष्ण, परम जीव हैं, नित्यो नित्यानाम चेतनश चेतनानाम (कठ उपनिषद २.२.१३) । श्री कृष्ण बिल्कुल हमारी तरह हैं । या हम श्री कृष्ण की अनुकृति हैं । अंतर यह है कि श्री कृष्ण विभु हैं, असीमित, और हम अणु हैं, हम सीमित हैं । यही अंतर है । अन्यथा, गुणात्मक, हम प्राय: श्री कृष्ण के समान हैं । इसलिए जो भी श्री कृष्ण की प्रवृत्तियॉ हैं, हम मे ये सभी प्रवृत्तियॉ हैं । श्री कृष्ण की प्रवृत्ति है दूसरी जाति (स्त्री) से प्रेम करना । इसलिए हममे यह प्रवृत्ति है, दूसरी जाति से प्यार करना । प्रेम की शुरुआत राधा और श्री कृष्ण से है, राधा और श्री कृष्ण के बीच शाश्वत प्रेम ।

तो हम भी शाश्वत प्रेम की खोज कर रहे हैं, लेकिन हम बद्ध हैं भौतिक कानूनों से, यह बाधित है । यह बाधित है । तो अगर हम इस रुकावट से बाहर अा जाते हैं, तब हम श्री कृष्ण और राधारानी की तरह का प्रेम संबंध पा सकते हैं । तो हमारा काम है कैसे वापस जाऍ भगवद धाम, श्री कृष्ण के पास । श्री कृष्ण के पास जाने का अर्थ है, कृष्ण शाश्वत हैं, हमें शाश्वत शरीर मिलता है । जैसे एक सचिव या राष्ट्रपति निक्सन का एक नौकर बनना, वह भी बड़े आदमी हैं ।

वह भी बड़े आदमी हैं । लेकिन जब तक कुछ विशेष गुणवत्ता न हो, वह सचिव या राष्ट्रपति निक्सन का निजी सेवक नहीं बन सकता । यह संभव नहीं है । आम आदमी नहीं बन सकता है राष्ट्रपति निक्सन का नौकर या सचिव । इसी प्रकार घर वापस, भगवद धाम वापस, जाने के लिए तुम्हे उसी प्रकार का शरीर मिलेगा, जैसे श्री कृष्ण का है । तुम भी अज हो जाते हो । अजो नित्य: शाश्वतो अयम । यह एक बीमारी है कि हम अपना शरीर बदल रहे हैं । तो श्री कृष्ण अज हैं ।