HI/Prabhupada 0971 - तो जब तक तुम जीवन की शारीरिक अवधारणा में हो, तुम जानवर से बेहतर नहीं हो



730400 - Lecture BG 02.13 - New York

योगी, वे भी शारीरिक व्यायाम से समझने की कोशिश कर रहे हैं । ज्ञानी भी कोशिश कर रहे हैं, पूरी तरह से समझने की कि, "मैं यह शरीर नहीं हूँ ।" और कर्मी, वे नहीं समझ सकते हैं । वे जानवर हैं । जानवर भी नहीं समझ सकते हैं कि वह शरीर नहीं हैं । तो तथ्यात्मक कर्मी, ज्ञानी, योगी, वे थोड़े शायद जानवरों से उन्नत हैं । बस । वे पशु मंच पर हैं, लेकिन थोड़ा ऊंचा । तो मैं यह उदाहरण देता हूं - शायद तुमने सुना है - कि मल का शुष्क पक्ष । भारत, वे खुले मैदान में शौच करते हैं । तो दिन के अंत में, क्योंकि धूप है, मल का ऊपरी भाग सूख जाता है । और निचला भाग, अभी भी नम है ।

तो कोई कहे, "यह पक्ष बहुत अच्छा है।" (हंसी) वह जानता नहीं है । अाखिरकार यह मल है । (हंसी) इस तरफ, या उस तरफ । तो ये धूर्त, वे जीवन की शारीरिक अवधारणा पर हैं, और वे सोच रहे हैं कि " मैं योगी हूँ," "मैं राष्ट्रवादी हूँ," "मैं यह हूं, मैं वह हूं, मैं वह हूं..." तुम समझ रहे हो । यह तत्वज्ञान है ।

तो जब तक तुम जीवन की शारीरिक अवधारणा में हो, तो तुम जानवर से बेहतर नहीं हो । यही भागवत दर्शन है । तुम जानवर हो । यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि धातुके ।

यस्यात्म बद्धि: कुणपे त्रि धातुके
स्व धी: कलत्रादीशु भौम इज्य धी:
यत तीर्थ बुद्धि: सलिले न कर्हिचिज
जनेषु अभिज्ञेषु स एव गो खर:
(श्रीमद भागवतम १०.८४.१३) |

तो गो खर: का मतलब है, गो मतलब गाय, खर: मतलब गधा । पशु । तो कौन है यह ? अब यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि धातु । यह थैला त्रि धातु का... कफ पित्त वायु - अगर कोई सोचता है कि "मैं यह शरीर हूँ, मैं यह शरीर हूँ, और मेरे शारीरिक संबंध में... " क्योंकि शारीरिक संबंध में मेरा अपना परिवार, समाज, बच्चे, पत्नी, देश है, और इसलिए वे मेरे हैं । तो यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि धा..., स्व धी: । स्व धी: मतलब सोचना : "वे मेरे हैं । मैं उनका हूँ ।" स्व धी: कलत्रादिषु । कलत्र का मतलब पत्नी । पत्नी के माध्यम से, हमें बच्चे मिलते हैं, हमारा विस्तार होता है ।

संस्कृत शब्द है स्त्री । स्त्री मतलब विस्तार । मैं एक रहता हूं । जैसे ही मुझे पत्नी मिलती है, मैं दो बन जाता हूं । फिर तीन, फिर चार, फिर पांच । इस तरह । यही स्त्री कहा जाता है । तो, हमारा विस्तार, ये विस्तार, ये भौतिक विस्तार, शारीरिक विस्तार, भ्रम है । जनस्य मोहो अयम अहम ममेति (श्रीमद भागवतम ५.५.८) । यह भ्रम बढ़ता है, कि "मैं यह शरीर हूँ, और शारीरिक संबंध में, सब कुछ मेरा है ।" अहम मम । अहम मतलब "मैं " अौर मम मतलब "मेरा" ।