HI/670416b प्रवचन - श्रील प्रभुपाद सैन फ्रांसिस्को में अपनी अमृतवाणी व्यक्त करते हैं: Difference between revisions
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|Vanisource:670416 - Lecture CC Adi 07.109-114 - New York| | {{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/670416CC-NEW_YORK_ND_02.mp3</mp3player>|“रोगी अवस्था में आपकी “मैं ” की पहचान अलग होती है। कभी एकाएक आवेग में, आप भूल जाते हो; यही विस्मृति है। कभी कभी यदि आप, मेरा मतलब है, दिमागी तौर से विक्षिप्त होते हैं, तब हम अपने सम्बन्ध के बारे में सभी कुछ भूल जाते हैं। परन्तु जब आप ठीक हो जाते हैं, आपको स्मरण होता है, “ओह, अपने उस भ्रम से मैं भूल गया था। हाँ। इसलिए आपका “मैं” सदैव रहता है। यह “मैं”, यह “मैं”, स्मरण होने पर शुद्ध हो जाता है। इसलिए अहंकार को शुद्ध करना होगा। अहंकार का नाश नहीं करना है। और उसका विनाश नहीं किया जा सकता, न हन्यते हन्यमाने शरीरे (भगवदगीता २.२०), क्योंकि वह सनातन है। आप अहंकार को कैसे मार सकते हो ? यह संभव नहीं है। इसलिए आपको अहंकार को शुद्ध करना है। जो अंतर है…, वह अंतर नकली और असली अहंकार के मध्य है। ठीक जिस प्रकार अहं ब्रह्मास्मि, अहम्....”मैं ब्रह्म हूँ”। ओह ! यह भी अहंकार है। यह जो, यह वैदिक मान्यता कि , मैं ब्रह्म हूँ , मैं यह भौतिक पञ्च-भूत नहीं हूँ,” तो यह अहंकार शुध्द है, कि “मैं यह हूँ”। इसलिए वह “मैं” सदैव रहता है। भ्रम में या प्रमाद या स्वप्न या स्वस्थ अवस्था में, “मैं” सदैव रहता है।” |Vanisource:670416 - Lecture CC Adi 07.109-114 - New York|प्रवचन श्री चैतन्य चरितामृत आदिलीला ०७.१०९-११४ - न्यूयार्क}} |
Latest revision as of 05:27, 5 May 2021
HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी |
“रोगी अवस्था में आपकी “मैं ” की पहचान अलग होती है। कभी एकाएक आवेग में, आप भूल जाते हो; यही विस्मृति है। कभी कभी यदि आप, मेरा मतलब है, दिमागी तौर से विक्षिप्त होते हैं, तब हम अपने सम्बन्ध के बारे में सभी कुछ भूल जाते हैं। परन्तु जब आप ठीक हो जाते हैं, आपको स्मरण होता है, “ओह, अपने उस भ्रम से मैं भूल गया था। हाँ। इसलिए आपका “मैं” सदैव रहता है। यह “मैं”, यह “मैं”, स्मरण होने पर शुद्ध हो जाता है। इसलिए अहंकार को शुद्ध करना होगा। अहंकार का नाश नहीं करना है। और उसका विनाश नहीं किया जा सकता, न हन्यते हन्यमाने शरीरे (भगवदगीता २.२०), क्योंकि वह सनातन है। आप अहंकार को कैसे मार सकते हो ? यह संभव नहीं है। इसलिए आपको अहंकार को शुद्ध करना है। जो अंतर है…, वह अंतर नकली और असली अहंकार के मध्य है। ठीक जिस प्रकार अहं ब्रह्मास्मि, अहम्....”मैं ब्रह्म हूँ”। ओह ! यह भी अहंकार है। यह जो, यह वैदिक मान्यता कि , मैं ब्रह्म हूँ , मैं यह भौतिक पञ्च-भूत नहीं हूँ,” तो यह अहंकार शुध्द है, कि “मैं यह हूँ”। इसलिए वह “मैं” सदैव रहता है। भ्रम में या प्रमाद या स्वप्न या स्वस्थ अवस्था में, “मैं” सदैव रहता है।” |
प्रवचन श्री चैतन्य चरितामृत आदिलीला ०७.१०९-११४ - न्यूयार्क |