HI/490500 - श्रीमान् को लिखित पत्र, कलकत्ता

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मई,1949 कलकत्ता

प्रिय श्रीमान् ,

हाल ही में बम्बई में हुई सर्वधर्म बैठक के समापन पर मैं कहना चाहुंगा कि उससे विश्व के विविध धर्मों को जोड़ने के संदर्भ में कुछ भी व्यवहारात्मक नहीं मिला है। पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण के दिव्य संदेश में, जो उन्होंने भगवद्गीता में दिया था, ही इसका वास्तविक समाधान है।

इस पवित्र दार्शनिक वार्तालाप में परम भगवान स्वयं को वह जननकर्ता पिता घोषित करते हैं, जो जिवात्माओं के बीज प्रकृति माँ के गर्भ में स्थित करते हैं, जिसके बाद माता प्रकृति सभी विविध प्रकार के जीव वर्गों को जन्म देती हैं। तो सरल सत्य यह है, कि परम भगवान पिता हैं, प्रकृति परम माता हैं और सभी जीवात्माएं सर्वशक्तिमान पिता भगवान एवं माता प्रकृति की संतानें हैं। इसीलिए, यह पूरी व्यवस्था एक परिवार है और अचरज होना चाहिए कि इस विश्वव्यापी पारिवारिक मामले में इतनी अनियमितताएं क्यों हैं।

इसका उत्तर भी भगवद्गीता में दिया गया है। यह बताया गया है कि भगवान और प्रकृति की सृष्टि में दो प्रकार की संतानें हैं। एक वर्ग कहलाता है दैव(देवता समान) और दूसरा वर्ग कहलाता है असुर(राक्षसी अथवा भगवद्विहीन)। परम भगवान पिता के पुत्र होने के कारण, जीवात्माओं के पास व्यक्तिगत स्वतन्त्रता होती है। और जब इनमें से कुछ, अपनी भगवद्प्रदत्त स्वाधीनता का भगवान् की इच्छापूर्ति में उपयोग करने के बजाए, स्वयं खुद की इन्द्रीय तृप्ति हेतु उसका दुरुपयोग करते हैं तो उनमें राक्षसी वृत्ति उत्पन्न हो जाती हैं और वे असुर बन जाते हैं। लेकिन जो भगवद्प्रदत्त स्वतन्त्रता का इन्द्रिय तृप्ति हेतु दुरुपयोग नहीं करते, वे दैव बने रहते हैं। इन्द्रिय तृप्ति के लिए भगवान एवं प्रकृति की आसुरिक संतानें भगवान की योजना को भुला देती हैं। फिर कभी प्रत्यक्ष और कभी विस्तारित स्वार्थ सिद्धि हेतु माता प्रकृति और उसकी आज्ञाकारी संतानों का शोषण और उन्हें परेशान करने लगती हैं। जो संतानें ऐसा नहीं करतीं वे असुरों से परिशिष्ट स्वयं देव हैं।

जैसाकि सहज रूप से उन्हे होना भी चाहिए, माता प्रकृति भगवान की सर्वाधिक निष्ठावान सेविका हैं और असुरों के आचरण से रुष्ट हो वे दैवमाया(आमतौर पर महाकाली, दुर्गा, भद्रकाली आदि नामों से विख्यात) का रूप धारण कर लेती हैं। और वे तुरन्त हाथ में अपना कठोर त्रिशूल धारण कर उस असुर के ह्रदय पर आघात करती हैं, जो उनका पुत्र भी है। भगवान के कार्यक्रम के अन्तर्गत, वह असुर तीन तापों का भोक्ता बनता है, जैसे अपने अवज्ञाकारी पुत्र को सही मार्ग पर लाने के लिए उसकी माता को उसे दण्डित करना पड़ता है। दण्ड की यह प्रक्रिया, असुर व दैव दोनों ही प्रकार के पुत्रों के भले के लिए महत्तवपूर्ण है, जिससे कि भगवान के बृहत् कार्यक्रम में उपद्रव न उत्पन्न हों। किन्तु जैसे ही एक असुर, एक आज्ञाकारी पुत्र एवं भगवदेच्छा के सेवक के रूप में भगवान का शरणागत हो जाता है, वह एक देवता में परिवर्तित हो जाता है। प्रकृति माँ का क्रोध तुरंत शांत हो जाता है और वे ऐसे देवतुल्य पुत्र के समक्ष, योगमाया ( आमतौर पर लक्ष्मी, सीता एवं राधारानी आदि) के रूप में, एक स्नेहपूर्ण माता दीख पड़ती हैं।

तो, भगवद्गीता के अनुसार विश्व की सारी विपत्ति का कारण है, असुरों की संख्या में वृद्धि और देवों की संख्या में गिरावट। कौन दैव है और कौन असुर, इसकी सुस्पष्ट परिभाषा भगवद्गीता में है। तो पूरी समस्या का समाधान विशेषज्ञों की सलाह के अनुसार होगा। औरविश्व का समस्याएं इतनी आसानी से हल नहीं हो जाएंगी कि यदा-कदा कुछ ऐसे लोगों के वार्तालाप का आयोजन कर दिया जाए जो स्वयं आसुरिक वृत्ति के वशीभूत हों। यह पूर्णतः वैज्ञानिक ढंग से किया जाना चाहिए जो त्रुटियों एवं भ्रम से परे है।

जैसा कि ऊपर कहा गया है, उस असुर के भगवान की शरण में जाते ही सारी समस्या हल हो जाती है। पर दुर्भाग्यवश ------------- माता प्रकृति के तीन तापों के प्रति और इस प्रकार अपनी मूर्खतापूर्ण गतिविधियों से मूढ़ बनकर वह आसानी से भगवान की शरण में नहीं जाता, क्योंकि वह परमपिता से अपना संबंध बहुत लंबे समय से भुलाए बैठा है। इसलिए, असुर को दैव में परिवर्तित कर पाना कठिन है, किन्तु स्वयं पुरुषोत्तम भगवान ने स्वयं ही भगवद्गीता में इस प्रक्रिया को आसान बना दिया है। महात्मा गांधीजी ने स्वयं इस कार्य का बीड़ा उठाया था, किन्तु वे इस संदर्भ में कोई प्रगति किए बिना जा चुके हैं। यदि हममें पर्याप्त बुद्धिमत्ता है तो हमें फिर इस मुद्दे और वैज्ञानिक ढंग से उठाना चाहिए और विश्व में शान्ति के लिए यह कार्य बहुत अच्छे ढंग से करना चाहिए।

मेरे गुरु महाराज की आज्ञानुसार मैंने भगवद्गीता पर आधारित एक कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार की है और इस योजना को वास्तविक आकार देने हेतु आपके साथ मिलकर चर्चा करनी चाहता हूँ। क्या आपके लिए इस कारणवश मुझ से मिलना सुविधाजनक होगा? यदि आप चाहें तो मैं अपने खर्च पर आपके पास आकर प्रतीक्षा करने को तैयार हूँ। आपके अविलम्ब उत्तर की अपेक्षा करते हुए, प्रत्याशा में आपका धन्यवाद करता हूँ।

निष्ठापूर्वक आपका,