HI/BG 11.51

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 51

अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन ।
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः ॥५१॥

शब्दार्थ

अर्जुन: उवाच—अर्जुन ने कहा; ²ष्ट्वा—देखकर; इदम्—इस; मानुषम्—मानवी; रूपम्—रूप को; तव—आपके; सौम्यम्—अत्यन्त सुन्दर; जनार्दन—हे शत्रुओं को दण्डित करने वाले; इदानीम्—अब; अस्मि—हूँ; संवृत्त:—स्थिर; स-चेता:—अपनी चेतना में; प्रकृतिम्—अपनी प्रकृति को; गत:—पुन: प्राह्रश्वत हूँ।

अनुवाद

जब अर्जुन ने कृष्ण को उनके आदि रूप मेंदेखा तो कहा – हे जनार्दन! आपके इस अतीव सुन्दर मानवी रूप को देखकर मैं अबस्थिरचित्त हूँ और मैंने अपनी प्राकृत अवस्था प्राप्त कर ली है |

तात्पर्य

यहाँ पर प्रयुक्त मानुषं रूपम् शब्द स्पष्ट सूचित करता हैं किभगवान् मूलतः दो भुजाओं वाले हैं | जो लोग कृष्ण को सामान्य व्यक्तिमानकरउनका उपहास करते हैं, उनको यहाँ पर भगवान् की दिव्य प्रकृति से अनभिज्ञबताया गया है | यदि कृष्ण मनुष्य होते तो उनके लिए पहले विश्र्वरूप और फिरचतुर्भुज नारायण रूप दिखा पाना कैसे सम्भव हो पाता? अतः भगवद्गीता में यहस्पष्ट उल्लेख है कि जो कृष्ण को सामान्य व्यक्ति मानता है और पाठक को यहकहकर भ्रान्त करता है कि कृष्ण के भीतर का निर्विशेष ब्रह्म बोल रहा है, वहसबसे बड़ा अन्याय करता है | कृष्ण ने सचमुच अपने विश्र्वरूप को तथाचतुर्भुज विष्णुरूप को प्रदर्शित किया | तो फिर वे किस तरह सामान्य पुरुषहो सकते हैं? शुद्ध भक्त कभी भी ऐसी गुमराह करने वाली टीकाओं से विचलितनहीं होता, क्योंकि वह वास्तविकता से अवगत रहता है | भगवद्गीता के मूलश्लोक सूर्य की भाँति स्पष्ट हैं, मूर्ख टीकाकारों को उन पर प्रकाश डालनेकी कोई आवश्यकता नहीं है |