HI/BG 6.19

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 19

यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥१९॥

शब्दार्थ

यथा—जिस तरह; दीप:—दीपक; निवात-स्थ:—वायुरहित स्थान में; न—नहीं; इङ्गते—हिलता डुलता; सा—यह; उपमा—तुलना; स्मृता—मानी जाती है; योगिन:—योगी की; यत-चित्तस्य—जिसका मन वश में है; युञ्जत:—निरन्तर संलग्न; योगम्—ध्यान में; आत्मन:—अध्यात्म में।

अनुवाद

जिस प्रकार वायुरहित स्थान में दीपक हिलता-डुलता नहीं, उसी तरह जिस योगी का मन वश में होता है, वह आत्मतत्त्व के ध्यान में सदैव स्थिर रहता है |

तात्पर्य

कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपने आराध्य देव के चिन्तन में उसी प्रकार अविचलित रहता है जिस प्रकार वायुरहित स्थान में एक दीपक रहता है |