HI/760318 - श्रील प्रभुपाद मायापुर में अपनी अमृतवाणी व्यक्त करते हैं: Difference between revisions

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[[Category:HI/अमृत वाणी - १९७६]]
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स वै मन: कृष्णपदारविन्दयो-
स वै मन: कृष्ण-पदारविन्दयोर
र्वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने।
वाचंसी वैकुण्ठ-गुणानुवर्णने
([[Vanisource: SB 9.4.18 |श्री.भा ९.४.१८]])
([[Vanisource: SB 9.4.18 |श्री.भा ९.४.१८]])
यह है... इन्द्रियों को नियंत्रित करने के लिए...
यह है ... इन्द्रियों को नियंत्रित करने के लिए ...
मन इन्द्रियों को नियंत्रित करता है। तो सबसे पहले अपने मन को कृष्ण के चरणारविन्द में लगाओ। यह सबसे पहला काम है। तो स वै मन: कृष्णपदारविन्दयोर्वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने।"|Vanisource:760318 - Lecture SB 07.09.40 - Mayapur|760318 - प्रवचन श्री.भा ०७.०९.०४ - मायापुर}}
मन इन्द्रियों का केन्द्रीय स्वरूप है। तो सबसे पहले अपने मन को कृष्ण के चरणारविन्द में लगाओ। यह सबसे पहला कार्य है। तो, स वै मन: कृष्ण-पदारविन्दयोर वाचंसी वैकुण्ठ-गुणानुवर्णने|Vanisource:760318 - Lecture SB 07.09.40 - Mayapur|760318 - प्रवचन श्री.भा ०७.०९.४० - मायापुर}}

Latest revision as of 10:57, 30 June 2024

HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी
"पूरा वैदिक सभ्यता एक प्रयास है मन को शांत स्थिति में लाने का ताकि "में अपने मन को कृष्ण के चरणारविन्द में लगा सकूं।" यह है वैदिक सभ्यता।

स वै मन: कृष्ण-पदारविन्दयोर वाचंसी वैकुण्ठ-गुणानुवर्णने (श्री.भा ९.४.१८)। यह है ... इन्द्रियों को नियंत्रित करने के लिए ... मन इन्द्रियों का केन्द्रीय स्वरूप है। तो सबसे पहले अपने मन को कृष्ण के चरणारविन्द में लगाओ। यह सबसे पहला कार्य है। तो, स वै मन: कृष्ण-पदारविन्दयोर वाचंसी वैकुण्ठ-गुणानुवर्णने

760318 - प्रवचन श्री.भा ०७.०९.४० - मायापुर