HI/BG 1.40: Difference between revisions

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Revision as of 15:25, 25 July 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 40

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलिय: ।
ीषु दुष्टासु वाष्र्णेय जायते वर्णसङ्कर: ॥ ४०॥

शब्दार्थ

अधर्म—अधर्म; अभिभवात्—प्रमुख होने से; कृष्ण—हे कृष्ण; प्रदुष्यन्ति—दूषित हो जाती हैं; कुल-िय:—कुल की ियाँ; ीषु—ीत्व के; दुष्टासु—दूषित होने से; वाष्र्णेय—हे वृष्णिवंशी; जायते—उत्पन्न होती है; वर्ण-सङ्कर:—अवांछित सन्तान।.

अनुवाद

हे कृष्ण! जब कुल में अधर्म प्रमुख हो जाता है तो कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं और स्त्रीत्व के पतन से हे वृष्णिवंशी! अवांछित सन्तानें उत्पन्न होती हैं |

तात्पर्य

जीवन में शान्ति, सुख तथा आध्यात्मिक उन्नति का मुख्य सिद्धान्त मानव समाज में अच्छी सन्तान का होना है | वर्णाश्रम धर्म के नियम इस प्रकार बनाये गये थे कि राज्य तथा जाति की आध्यात्मिक उन्नति के लिए समाज में अच्छी संतान उत्पन्न हो | ऐसी सन्तान समाज में स्त्री के सतीत्व और निष्ठा पर निर्भर करती है | जिस प्रकार बालक सरलता से कुमार्गगामी बन जाते हैं उसी प्रकार स्त्रियाँ भी पत्नोन्मुखी होती हैं | अतः बालकों तथा स्त्रियों दोनों को ही समाज के वयोवृद्धों का संरक्षण आवश्यक है | स्त्रियाँ विभिन्न धार्मिक प्रथाओं में संलग्न रहने पर व्यभिचारिणी नहीं होंगी | चाणक्य पंडित के अनुसार सामान्यतया स्त्रियाँ अधिक बुद्धिमान नहीं होतीं अतः वे विश्र्वसनीय नहीं हैं | इसलिए उन्हें विविध कुल-परम्पराओं में व्यस्त रहना चाहिए और इस तरह उनके सतीत्व तथा अनुरक्ति से ऐसी सन्तान जन्मेगी जो वर्णाश्रम धर्म में भाग लेने के योग्य होगी | ऐसे वर्णाश्रम-धर्म के विनाश से यह स्वाभाविक है कि स्त्रियाँ स्वतन्त्रतापूर्वक पुरुषों से मिल सकेंगी और व्यभिचार को प्रश्रय मिलेगा जिससे अवांछित सन्तानें उत्पन्न होंगी | निठल्ले लोग भी समाज में व्यभिचार को प्रेरित करते हैं और इस तरह अवांछित बच्चो की बाढ़ आ जाती है जिससे मानव जाति पर युद्ध और महामारी का संकट छा जाता है |