HI/BG 2.27: Difference between revisions

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Revision as of 14:14, 28 July 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 27

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शब्दार्थ

जातस्य—जन्म लेने वाले की; हि—निश्चय ही; ध्रुव:—तथ्य है; मृत्यु:—मृत्यु; ध्रुवम्—यह भी तथ्य है; जन्म—जन्म; मृतस्य—मृत प्राणी का; च—भी; तस्मात्—अत:; अपरिहार्ये—जिससे बचा न जा सके, उसका; अर्थे—के विषय में; न—नहीं; त्वम्—तुम; शोचितुम्—शोक करने के लिए; अर्हसि—योग्य हो।

अनुवाद

जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है | अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए |

तात्पर्य

मनुष्य को अपने कर्मों के अनुसार जन्म ग्रहण करना होता है और एक कर्म-अवधि समाप्त होने पर उसे मरना होता है , जिससे वह दूसरा जन्म ले सके | इस प्रकार मुक्ति प्राप्त किये बिना ही जन्म-मृत्यु का यह चक्र चलता रहता है | जन्म-मरण के इस चक्र से वृथा हत्या, वध या युद्ध का समर्थन नहीं होता | किन्तु मानव समाज में शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए हिंसा तथा युद्ध अपरिहार्य हैं |

कुरुक्षेत्र का युद्ध भगवान् की इच्छा होने के कारण अपरिहार्य था और सत्य के लिए युद्ध करना क्षत्रिय काधर्म है | अतः अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की मृत्यु से भयभीत या शोककुल क्यों था? वह विधि (कानून) को भंग नहीं करना चाहता था क्योंकि ऐसा करने पर उसे उन पापकर्मों के फल भोगने पड़ेंगे जिनमे वह अत्यन्त भयभीत था | अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की मृत्यु को रोक नहीं सकता था और यदि वह अनुचित कर्तव्य-पथ का चुनाव करे, तो उसे निचे गिरना होगा |