HI/BG 2.32: Difference between revisions
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Revision as of 14:24, 28 July 2020
श्लोक 32
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शब्दार्थ
य²च्छया—अपने आप; च—भी; उपपन्नम्—प्राह्रश्वत हुए; स्वर्ग—स्वर्गलोक का; द्वारम्—दरवाजा; अपावृतम्—खुला हुआ; सुखिन:—अत्यन्त सुखी; क्षत्रिया:—राजपरिवार के सदस्य; पार्थ—हे पृथापुत्र; लभन्ते—प्राह्रश्वत करते हैं; युद्धम्—युद्ध को; ई²शम्—इस तरह।
अनुवाद
हे पार्थ! वे क्षत्रिय सुखी हैं जिन्हें ऐसे युद्ध के अवसर अपने आप प्राप्त होते हैं जिससे उनके लिए स्वर्गलोक के द्वार खुल जाते हैं |
तात्पर्य
विश्र्व के परम गुरु भगवान् कृष्ण अर्जुन की इस प्रवृत्ति की भर्त्सना करते हैं जब वह कहता है कि उसे इस युद्ध में कुछ भी तो लाभ नहीं दिख रहा है | इससे नरक में शाश्र्वत वास करना होगा | अर्जुन द्वारा ऐसे वक्तव्य केवल अज्ञानजन्य थे | वह अपने स्वधर्म के आचरण में अहिंसक बनना चाह रहा था, किन्तु एक क्षत्रिय के लिए युद्धभूमि में स्थित होकर इस प्रकार अहिंसक बनना मूर्खों का दर्शन है | पराशर-स्मृति में व्यासदेव के पिता पराशर ने कहा है –
क्षत्रियो हि प्रजारक्षन् शस्त्रपाणिः प्रदण्डयन् |
निर्जित्य परसैन्यादि क्षितिं धर्मेण पाल्येत् ||
"क्षत्रिय का धर्म है कि वह सभी क्लेशों से नागरिकों की रक्षा करे | इसीलिए उसे शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए हिंसा करनी पड़ती है | अतः उसे शत्रु राजाओं के सैनिकों को जीत कर धर्मपूर्वक संसार पर राज्य करना चाहिए |"
यदि सभी पक्षों पर विचार करें तो अर्जुन को युद्ध से विमुख होने का कोई कारण नहीं था | यदि वह शत्रुओं को जीतता है तो राज्यभोग करेगा और यदि वह युद्धभूमि में मरता है तो स्वर्ग को जायेगा जिसके द्वार उसके लिए खुले हुए हैं | युद्ध करने के लिए उसे दोनों ही तरह लाभ होगा |