HI/BG 3.40: Difference between revisions

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Revision as of 13:42, 30 July 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 40

k

शब्दार्थ

इन्द्रियाणि—इन्द्रियाँ; मन:—मन; बुद्धि:—बुद्धि; अस्य—इस काम का; अधिष्ठानम्—निवासस्थान; उच्यते—कहा जाता है; एतै:—इन सबों से; विमोहयति—मोहग्रस्त करता है; एष:—यह काम; ज्ञानम्—ज्ञान को; आवृत्य—ढक कर; देहिनम्—शरीरधारी को।

अनुवाद

इन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि इस काम के निवासस्थान हैं | इनके द्वारा यह काम जीवात्मा के वास्तविक ज्ञान को ढक कर उसे मोहित कर लेता है |

तात्पर्य

चूँकि शत्रु ने बद्धजीव के शरीर के विभिन्न सामरिक स्थानों पर अपना अधिकार कर लिया है, अतः भगवान् कृष्ण उन स्थानों का संकेत कर रहे हैं जिससे शत्रु को जीतने वाला यह जान ले कि शत्रु कहाँ पर है | मन समस्त इन्द्रियों के कार्यकलापों का केन्द्रबिन्दु है, अतः जब हम इन्द्रिय-विषयों के सम्बन्ध में सुनते हैं तो मन इन्द्रियतृप्ति के समस्त भावों का आगार बन जाता है | इस तरह मन तथा इन्द्रियाँ काम की शरणस्थली बन जाते हैं | इसके बाद बुद्धि ऐसी कामपूर्ण रुचियों की राजधानी बन जाती है | बुद्धि आत्मा की निकट पड़ोसन है | काममय बुद्धि से आत्मा प्रभावित होता है जिससे उसमें अहंकार उत्पन्न होता है और वह पदार्थ से तथा इस प्रकार मन तथा इन्द्रियों से अपना तादात्मय कर लेता है | आत्मा को भौतिक इन्द्रियों का भोग करने की लत पड़ जाती है जिसे वह वास्तविक सुख मान बैठता है | श्रीमद्भागवत में (१०.८४.१३) आत्मा के इस मिथ्या स्वरूप की अत्युत्तम विवेचना की गई है –

यस्यात्मबुद्धिः कृणपे त्रिधातुके स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः |

यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कर्हिचिज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखरः ||

"जो मनुष्य इस त्रिधातु निर्मित शरीर को आत्मस्वरूप जान बैठता है, जो देह के विकारों को स्वजन समझता है, जो जन्मभूमि को पूज्य मानता है और जो तीर्थस्थलों की यात्रा दिव्यज्ञान वाले पुरुष से भेंट करने के लिए नहीं, अपितु स्नान करने के लिए करता है उसे गधा या बैल के समान समझना चाहिए |"