HI/BG 4.41: Difference between revisions
(Bhagavad-gita Compile Form edit) |
(No difference)
|
Revision as of 16:07, 1 August 2020
श्लोक 41
- j
शब्दार्थ
योग—कर्मयोग में भक्ति से; सन्न्यस्त—जिसने त्याग दिये हैं; कर्माणम्—कर्मफलों को; ज्ञान—ज्ञान से; सञ्छिन्न—काट दिये हैं; संशयम्—सन्देह को; आत्म-वन्तम्—आत्मपरायण को; न—कभी नहीं; कर्माणि—कर्म; निबध्नन्ति—बाँधते हैं; धनञ्जय—हे सम्पत्ति के विजेता।
अनुवाद
जो व्यक्ति अपने कर्मफलों का परित्याग करते हुए भक्ति करता है और जिसके संशय दिव्यज्ञान द्वारा विनष्ट हो चुके होते हैं वही वास्तव में आत्मपरायण है | हे धनञ्जय! वह कर्मों के बन्धन से नहीं बँधता |
तात्पर्य
जो मनुष्य भगवद्गीता की शिक्षा का उसी रूप में पालन करता है जिस रूप में भगवान् श्रीकृष्ण ने दी थी, तो वह दिव्यज्ञान की कृपा से समस्त संशयों से मुक्त हो जाता है | पूर्णतः कृष्णभावनाभावित होने के कारण उसे श्रीभगवान् के अंश रूप में अपने स्वरूप का ज्ञान पहले ही हो जाता है | अतएव निस्सन्देह वह कर्मबन्धन से मुक्त है |