HI/BG 5.12: Difference between revisions
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Revision as of 04:44, 2 August 2020
श्लोक 12
- j
शब्दार्थ
युक्त:—भक्ति में लगा हुआ; कर्म-फलम्—समस्त कर्मों के फल; त्यक्त्वा—त्यागकर; शान्तिम्—पूर्ण शान्ति को; आह्रश्वनोति—प्राह्रश्वत करता है; नैष्ठिकीम्—अचल; अयुक्त:—कृष्णभावना से रहित; काम-कारेण—कर्मफल को भोगने के कारण; फले—फल में; सक्त:—आसक्त; निबध्यते—बँधता है।
अनुवाद
निश्चल भक्त शुद्ध शान्ति प्राप्त करता है क्योंकि वह समस्त कर्मफल मुझे अर्पित कर देता है, किन्तु जो व्यक्ति भगवान् से युक्त नहीं है और जो अपने श्रम का फलकामी है, वह बँध जाता है |
तात्पर्य
एक कृष्णभावनाभावित व्यक्ति तथा देहात्मबुद्धि वाले व्यक्ति में यह अन्तर है कि पहला तो कृष्ण के प्रति आसक्त रहता है जबकि दूसरा अपने कर्मों के प्रति आसक्त रहता है | जो व्यक्ति कृष्ण के प्रति आसक्त रहकर उन्हीं के लिए कर्म करता है वह निश्चय ही मुक्त पुरुष है और उसे अपने कर्मफल की कोई चिन्ता नहीं होती | भागवत में किसी कर्म के फल की चिन्ता का कारण परमसत्य के ज्ञान के बिना द्वैतभाव में रहकर कर्म करना बताया गया है | कृष्ण श्रीभगवान् हैं | कृष्णभावनामृत में कोई द्वैत नहीं रहता | जो कुछ विद्यमान है वह कृष्ण का प्रतिफल है और कृष्ण सर्वमंगलमय हैं | अतः कृष्णभावनामृत में सम्पन्न सारे कार्य परम पद पर हैं | वे दिव्य होते हैं और उनका कोई भौतिक प्रभाव नहीं पड़ता | इस कारण कृष्णभावनामृत में जीव शान्ति से पूरित रहता है | किन्तु जो इन्द्रियतृप्ति के लिए लोभ में फँसा रहता है, उसे शान्ति नहीं मिल सकती | यही कृष्णभावनामृत का रहस्य है – यह अनुभूति कि कृष्ण के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, शान्ति तथा अभय का पद है |