HI/BG 7.8: Difference between revisions
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Revision as of 06:30, 2 August 2020
श्लोक 8
- “रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसुर्ययो: |
- प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु || ८ ||”
शब्दार्थ
रस:—स्वाद; अहम्—मैं; अप्सु—जल में; कौन्तेय—हे कुन्तीपुत्र; प्रभा—प्रकाश; अस्मि—हूँ; शशि-सूर्ययो:—चन्द्रमा तथा सूर्य का; प्रणव:—ओंकार के अ, उ, म ये तीन अक्षर; सर्व—समस्त; वेदेषु—वेदों में; शब्द:—शब्द, ध्वनि; खे—आकाश में; पौरुषम्—शक्ति, सामथ्र्य; नृषु—मनुष्यों में।.
अनुवाद
हे कुन्तीपुत्र! मैं जल का स्वाद हूँ, सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश हूँ, वैदिक मन्त्रों में ओंकार हूँ, आकाश में ध्वनि हूँ तथा मनुष्य में सामर्थ्य हूँ |
तात्पर्य
तात्पर्य : यह श्लोक बताता है कि भगवान् किस प्रकार अपनी विविध परा तथा अपरा शक्तियों द्वारा सर्वव्यापी हैं | परमेश्र्वर की प्रारम्भिक अनुभूति उनकी विभिन्न शक्तियों द्वारा हो सकती है और इस प्रकार उनका निराकार रूप में अनुभव होता है | जिस प्रकार सूर्यदेवता एक पुरुष है और सर्वव्यापी शक्ति – सूर्यप्रकाश – द्वारा अनुभव किया जाता है, उसी प्रकार भगवान् अपने धाम में रहते हुए भी अपनी सर्वव्यापी शक्तियों द्वारा अनुभव किये जाते हैं | जल का स्वाद जल का मूलभूत गुण है | कोई भी व्यक्ति समुद्र का जल नहीं पीना चाहता क्योंकि इसमें शुद्ध जल के स्वाद के साथ साथ नमक मिला रहता है | जल के प्रति आकर्षण का कारण स्वाद की शुद्धि है और यह शुद्ध स्वाद भगवान् की शक्तियों में से एक है | निर्विशेषवादी व्यक्ति जल में भगवान् की उपस्थिति जल के स्वाद के कारण अनुभव करता है और सगुणवादी भगवान् का गुणगान करता है, क्योंकि वे प्यास बुझाने के लिए सुस्वादु जल प्रदान करते हैं | परमेश्र्वर को अनुभव करने की यही विधि है | व्यव्हारतः सगुणवाद तथा निर्विशेषवाद में कोई मतभेद नहीं है | जो ईश्र्वर को जानता है वह यह भी जानता है कि प्रत्येक वस्तु में एकसाथ सगुणबोध तथा निर्गुणबोध निहित होता है और इनमें कोई विरोध नहीं है | अतः भगवान् चैतन्य ने अपना शुद्ध सिद्धान्त प्रतिपादित किया जो अचिन्त्य भेदाभेद-तत्त्व कहलाता है |
सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश भी मूलतः ब्रह्मज्योति से निकलता है, जो भगवान् का निर्विशेष प्रकाश है | प्रणव या ओंकार प्रत्येक वैदिक मन्त्र के प्रारम्भ में भगवान् को सम्बोधित करने के लिए प्रयुक्त दिव्य ध्वनि है | चूँकि निर्विशेषवादी परमेश्र्वर कृष्ण को उनके असंख्य नामों के द्वारा पुकारने से भयभीत रहते हैं, अतः वे ओंकार का उच्चारण करते हैं, किन्तु उन्हें इसकी तनिक भी अनुभूति नहीं होती कि ओंकार कृष्ण का शब्द स्वरूप है | कृष्णभावनामृत का क्षेत्र व्यापक है और जो इस भावनामृत को जानता है वह धन्य है | जो कृष्ण को नहीं जानते वे मोहग्रस्त रहते हैं | अतः कृष्ण का ज्ञान मुक्ति है और उनके प्रति अज्ञान बन्धन है |