HI/BG 7.2: Difference between revisions
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ज्ञानम्—प्रत्यक्ष ज्ञान; ते—तुमसे; अहम्—मैं; स—सहित; विज्ञानम्—दिव्यज्ञान; इदम्—यह; वक्ष्यामि—कहूँगा; अशेषत:—पूर्णरूप से; यत्—जिसे; ज्ञात्वा—जानकर; न—नहीं; इह—इस संसार में; भूय:—आगे; अन्यत्—अन्य कुछ; ज्ञातव्यम्—जानने योग्य; अवशिष्यते—शेष रहता है। | ज्ञानम्—प्रत्यक्ष ज्ञान; ते—तुमसे; अहम्—मैं; स—सहित; विज्ञानम्—दिव्यज्ञान; इदम्—यह; वक्ष्यामि—कहूँगा; अशेषत:—पूर्णरूप से; यत्—जिसे; ज्ञात्वा—जानकर; न—नहीं; इह—इस संसार में; भूय:—आगे; अन्यत्—अन्य कुछ; ज्ञातव्यम्—जानने योग्य; अवशिष्यते—शेष रहता है। | ||
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पूर्णज्ञान में प्रत्यक्ष जगत्, इसके पीछे काम करने वाला आत्मा तथा इन दोनों के उद्गम सम्मिलित हैं | यह दिव्यज्ञान है | भगवान् उपर्युक्त ज्ञानपद्धति बताना चाहते हैं, क्योंकि अर्जुन उनका विश्र्वस्त भक्त तथा मित्र है | चतुर्थ अध्याय के प्रारम्भ में इसकी व्याख्या भगवान् कृष्ण ने की और उसी की पुष्टि यहाँ पर हो रही है | भगवद्भक्त द्वारा पूर्णज्ञान का लाभ भगवान् से प्रारम्भ होने वाली गुरु-परम्परा से ही किया जा सकता है | अतः मनुष्य को इतना बुद्धिमान तो होना ही चाहिए कि वह समस्त ज्ञान के अद्गम को जान सके, जो समस्त कारणों के कारणहै और समस्त योगों में ध्यान का एकमात्र लक्ष्य है | जब समस्त कारणों के कारण का पता चल जाता है, तो सभी ज्ञेय वस्तुएँ ज्ञात हो जाती हैं और कुछ भी अज्ञेय नहीं रह जाता | वेदों का (मुण्डक उपनिषद् १.३) कहना है – कस्मिन् भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति| | |||
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Latest revision as of 15:44, 4 August 2020
श्लोक 2
- ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
- यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥२॥
शब्दार्थ
ज्ञानम्—प्रत्यक्ष ज्ञान; ते—तुमसे; अहम्—मैं; स—सहित; विज्ञानम्—दिव्यज्ञान; इदम्—यह; वक्ष्यामि—कहूँगा; अशेषत:—पूर्णरूप से; यत्—जिसे; ज्ञात्वा—जानकर; न—नहीं; इह—इस संसार में; भूय:—आगे; अन्यत्—अन्य कुछ; ज्ञातव्यम्—जानने योग्य; अवशिष्यते—शेष रहता है।
अनुवाद
अब मैं तुमसे पूर्णरूप से व्यावहारिक तथा दिव्यज्ञान कहूँगा | इसे जान लेने पर तुम्हें जानने के लिए और कुछ भी शेष नहीं रहेगा |
तात्पर्य
पूर्णज्ञान में प्रत्यक्ष जगत्, इसके पीछे काम करने वाला आत्मा तथा इन दोनों के उद्गम सम्मिलित हैं | यह दिव्यज्ञान है | भगवान् उपर्युक्त ज्ञानपद्धति बताना चाहते हैं, क्योंकि अर्जुन उनका विश्र्वस्त भक्त तथा मित्र है | चतुर्थ अध्याय के प्रारम्भ में इसकी व्याख्या भगवान् कृष्ण ने की और उसी की पुष्टि यहाँ पर हो रही है | भगवद्भक्त द्वारा पूर्णज्ञान का लाभ भगवान् से प्रारम्भ होने वाली गुरु-परम्परा से ही किया जा सकता है | अतः मनुष्य को इतना बुद्धिमान तो होना ही चाहिए कि वह समस्त ज्ञान के अद्गम को जान सके, जो समस्त कारणों के कारणहै और समस्त योगों में ध्यान का एकमात्र लक्ष्य है | जब समस्त कारणों के कारण का पता चल जाता है, तो सभी ज्ञेय वस्तुएँ ज्ञात हो जाती हैं और कुछ भी अज्ञेय नहीं रह जाता | वेदों का (मुण्डक उपनिषद् १.३) कहना है – कस्मिन् भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति|