HI/BG 9.23: Difference between revisions
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:तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥२३॥ | |||
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Latest revision as of 15:49, 6 August 2020
श्लोक 23
- येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
- तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥२३॥
शब्दार्थ
ये—जो; अपि—भी; अन्य—दूसरे; देवता—देवताओं के; भक्ता:—भक्तगण; यजन्ते—पूजते हैं; श्रद्धया अन्विता:—श्रद्धापूर्वक; ते—वे; अपि—भी; माम्—मुझको; एव—केवल; कौन्तेय—हे कुन्तीपुत्र; यजन्ति—पूजा करते हैं; अविधिपूर्व कम्—त्रुटिपूर्ण ढंग से।
अनुवाद
हे कुन्तीपुत्र! जो लोग अन्य देवताओं के भक्त हैं और उनकी श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं, वास्तव में वे भी मेरी पूजा करते हैं, किन्तु वे यह त्रुटिपूर्ण ढंग से करते हैं |
तात्पर्य
श्रीकृष्ण का कथन है "जो लोग अन्य देवताओं की पूजा में लगे होते हैं, वे अधिक बुद्धिमान नहीं होते, यद्यपि ऐसी पूजा अप्रत्यक्षतः मेरी पूजा है |" उदाहरणार्थ, जब कोई मनुष्य वृक्ष की जड़ों में पानी न डालकर उसकी पत्तियों तथा टहनियों में डालता है, तो वह ऐसा इसीलिए करता है क्योंकि उसे पर्याप्त ज्ञान नहीं होता या वह नियमों का ठीक से पालन नहीं करता | इसी प्रकार शरीर के विभिन्न अंगों की सेवा करने का अर्थ है आमाशय में भोजन की पूर्ति करना | इसी तरह विभिन्न देवता भगवान् की सरकार के विभिन्न अधिकारी तथा निर्देशक हैं | मनुष्य को अधिकारियों या निर्देशकों द्वारा नहीं अपितु सरकार द्वारा निर्मित नियमों का पालन करना होता है | इसी प्रकार हर एक को परमेश्र्वर की ही पूजा करनी होती है | इससे भगवान् के सारे अधिकारी तथा निर्दशक स्वतः प्रसन्न होंगे | अधिकारी तथा निर्देशक तो सरकार के प्रतिनिधि होते हैं, अतः इन्हें घूस देना अवैध है | यहाँ पर इसी को अविधिपूर्वकम् कहा गया है | दूसरे शब्दों में कृष्ण अन्य देवताओं की व्यर्थ पूजा का समर्थन नहीं करते |