HI/BG 9.27: Difference between revisions
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:यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥२७॥ | |||
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Latest revision as of 15:57, 6 August 2020
श्लोक 27
- यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
- यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥२७॥
शब्दार्थ
यत्—जो कुछ; करोषि—करते हो; यत्—जो भी; अश्नासि—खाते हो; यत्—जो कुछ; जुहोषि—अॢपत करते हो; ददासि—दान देते हो; यत्—जो; यत्—जो भी; तपस्यसि—तप करते हो; कौन्तेय—हे कुन्तीपुत्र; तत्—वह; कुरुष्व—करो; मत्—मुझको; अर्पणम्—भेंट रूप में।
अनुवाद
हे कुन्तीपुत्र! तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे अर्पित करते हुए करो |
तात्पर्य
इस प्रकार यह प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि अपने जीवन को इस प्रकार ढाले कि वह किसी भी दशा में कृष्ण को न भूल सके | प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन-निर्वाह के लिए कर्म करना पड़ता है और कृष्ण यहाँ पर आदेश देते हैं कि हर व्यक्ति उनके लिए ही कर्म करे | प्रत्येक व्यक्ति को जीवित रहने के लिए कुछ न कुछ खाना पड़ता है अतः उसे चाहिए कि कृष्ण को अर्पित भोजन के उच्छिष्ट को ग्रहण करे | प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ धार्मिक अनुष्ठान करने होते हैं, अतः कृष्ण कि संस्तुति है, “इसे मेरे हेतु करो” | यही अर्चन है | प्रत्येक व्यक्ति कुछ न कुछ दान देता है, अतः कृष्ण कहते हैं, “यह मुझे दो” जिसका अर्थ यह है कि अधिक धन का उपयोग कृष्णभावनामृत आन्दोलन की उन्नति के लिए करो | आजकल लोग ध्यान विधि के प्रति विशेष रूचि दिखाते हैं, यद्यपि इस युग के लिए यह व्यावहारिक नहीं है, किन्तु यदि कोई चौबीस घण्टे हरे कृष्ण का जप अपनी माला में करे तो वह निश्चित रूप से महानतम ध्यानी तथा योगी है, जिसकी पुष्टि भगवद्गीता के छठे अध्याय में की गई है |