HI/BG 11.5: Difference between revisions
(Bhagavad-gita Compile Form edit) |
(No difference)
|
Revision as of 16:21, 7 August 2020
श्लोक 5
- k
शब्दार्थ
श्री-भगवान् उवाच—भगवान् ने कहा; पश्य—देखो; मे—मेरा; पार्थ—हे पृथापुत्र; रूपाणि—रूप; शतश:—सैकड़ों; अथ—भी; सहस्रश:—हजारों; नाना-विधानि—नाना रूप वाले; दिव्यानि—दिव्य; नाना—नाना प्रकार के; वर्ण—रंग; आकृतीनि—रूप; च—भी।
अनुवाद
भगवान् ने कहा –हे अर्जुन, हे पार्थ! अब तुम मेरे ऐश्र्वर्य को, सैकड़ों-हजारों प्रकार के दैवी तथा विविध रंगों वाले रूपों को देखो ।
तात्पर्य
अर्जुन कृष्ण के विश्र्वरूप का दर्शनाभिलाषी था, दिव्य होकर भी दृश्य जगत् के लाभार्थ प्रकट होता है । फलतः वह प्रकृति के अस्थाई काल द्वारा प्रभावित है । जिस प्रकार प्रकृति (माया) प्रकट-अप्रकट है, उसी प्रकार कृष्ण का यह विश्र्वरूप भी प्रकट तथा अप्रकट होता रहता है । यह कृष्ण रूपों की भाँति वैकुण्ठ में नित्य नहीं रहता । जहाँ तक भक्त की बात है, वह विश्र्व रूप देखने के लिए तनिक भी इच्छुक नहीं रहता, लेकिन चूँकि अर्जुन कृष्ण को इस रूप में देखना चाहता था, अतः वे यह रूप प्रकट करते हैं । सामान्य व्यक्ति इस रूप को नहीं देख सकता । श्रीकृष्ण द्वारा शक्ति प्रदान किये जाने पर ही इसके दर्शन हो सकते हैं ।