HI/BG 12.16: Difference between revisions

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Revision as of 16:48, 9 August 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 16

k

शब्दार्थ

अनपेक्ष:—इच्छारहित; शुचि:—शुद्ध; दक्ष:—पटु; उदासीन:—चिन्ता से मुक्त; गतव्यथ:—सारे कष्टों से मुक्त; सर्व-आरम्भ—समस्त प्रयत्नों का; परित्यागी—परित्याग करने वाला; य:—जो; मत्-भक्त:—मेरा भक्त; स:—वह; मे—मेरा; प्रिय:—अतिशय प्रिय।

अनुवाद

मेरा ऐसा भक्त जो सामान्य कार्य-कलापों पर आश्रित नहीं है, जो शुद्ध है, दक्ष है, चिन्तारहित है, समस्त कष्टों से रहित है और किसी फल के लिए प्रयत्नशील नहीं रहता, मुझे अतिशय प्रिय है |

तात्पर्य

भक्त को धन दिया जा सकता है, किन्तु उसे धन अर्जित करने के लिए संघर्ष नहीं करना चाहिए | भगवत्कृपा से यदि उसे स्वयं धन की प्राप्ति हो, तो वह उद्विग्न नहीं होता | स्वाभाविक है कि भक्त दिनभर में दो बार स्नान करता है और भक्ति के लिए प्रातःकाल जल्दी उठता है | इस प्रकार वह बाहर तथा भीतर से स्वच्छ रहता है | भक्त सदैव दक्ष होता है, क्योंकि वह जीवन के समस्त कार्यकलापों के सार को जानता है और प्रामाणिक शास्त्रों में दृढ़विश्वास रखता है | भक्त कभी किसी दल में भाग नहीं लेता, अतएव वह चिन्तामुक्त रहता है | समस्त उपाधियों से मुक्त होने के कारण कभी व्यथित नहीं होता, वह जानता है कि उसका शरीर एक उपाधि है, अतएव शारीरिक कष्टों के आने पर वह मुक्त रहता है | शुद्ध भक्त कभी भी ऐसी वस्तु के लिए प्रयास नहीं करता, जो भक्ति के नियमों के प्रतिकूल हो | उदाहरणार्थ, किसी विशाल भवन को बनवाने में काफी शक्ति लगती है, अतएव वह कभी ऐसे कार्य में हाथ नहीं लगाता, जिससे उसकी भक्ति में प्रगति न होती हो | वह भगवान् के लिए मंदिर का निर्माण करा सकता है और उसके लिए वह सभी प्रकार की चिन्ताएँ उठा सकता है, लेकिन वह अपने परिवार वालों के लिए बड़ा सा मकान नहीं बनाता |