HI/BG 13.24: Difference between revisions
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Latest revision as of 17:08, 10 August 2020
श्लोक 24
- य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।
- सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥२४॥
शब्दार्थ
य:—जो; एवम्—इस प्रकार; वेत्ति—जानता है; पुरुषम्—जीव को; प्रकृतिम्—प्रकृति को; च—तथा; गुणै:—प्रकृति के गुणों के; सह—साथ; सर्वथा—सभी तरह से; वर्तमान:—स्थित होकर; अपि—के बावजूद; न—कभी नहीं; स:—वह; भूय:—फिर से; अभिजायते—जन्म लेता है।
अनुवाद
जो व्यक्ति प्रकृति, जीव तथा प्रकृति के गुणों की अन्तःक्रिया से सम्बन्धित इस विचारधारा को समझ लेता है, उसे मुक्ति की प्राप्ति सुनिश्चित है । उसकी वर्तमान स्थिति चाहे जैसी हो, यहाँ पर उसका पुनर्जन्म नहीं होगा ।
तात्पर्य
प्रकृति, परमात्मा, आत्मा तथा इनके अन्तःसम्बन्ध की स्पष्ट जानकारी हो जाने पर मनुष्य मुक्त होने का अधिकारी बनता है और वह इस भौतिक प्रकृति में लौटने के लिए बाध्य हुए बिना वैकुण्ठ वापस चले जाने अधिकारी बन जाता है । यह ज्ञान का फल है । ज्ञान यह समझने के लिए है कि दैवयोग से जीव इस संसार में आ गिरा है । उसे प्रामाणिक व्यक्तियों, साधु-पुरुषों तथा गुरु की संगति में निजी प्रयास द्वारा अपनी स्थिति समझनी है, और तब जिस रूप में भगवान् ने भगवद्गीता कही है, उसे समझ कर आध्यात्मिक चेतना या कृष्णभावनामृत को प्राप्त करना है । तब यह निश्चित है कि वह संसार में फिर कभी नहीं आ सकेगा, वह सच्चिदानन्दमय जीवन बिताने के लिए वैकुण्ठ-लोक भेज दिया जायेगा ।