HI/BG 16.6: Difference between revisions

(Bhagavad-gita Compile Form edit)
(No difference)

Revision as of 09:41, 13 August 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 6

k

शब्दार्थ

द्वौ—दो; भूत-सर्गौ—जीवों की सृष्टियाँ; लोके—संसार में; अस्मिन्—इस; दैव:—दैवी; आसुर:—आसुरी; एव—निश्चय ही; च—तथा; दैव:—दैवी; विस्तरश:—विस्तार से; प्रोक्त:—कहा गया; आसुरम्—आसुरी; पार्थ—हे पृथापुत्र; मे—मुझसे; शृणु—सुनो।

अनुवाद

हे पृथापुत्र! इस संसार में सृजित प्राणी दो प्रकार के हैं – दैवी तथा आसुरी । मैं पहले ही विस्तार से तुम्हें दैवी गुण बतला चुका हूँ । अब मुझसे आसुरी गुणों के विषय में सुनो ।

तात्पर्य

अर्जुन को यह कह कर कि वह दैवी गुणों से उत्पन्न होकर जन्मा है, भगवान् कृष्ण अब उसे आसुरी गुण बताते हैं । इस संसार में बद्ध जीव दो श्रेणियों में बँटे हुए हैं । जो जीव दिव्य गुणों से सम्पन्न होते हैं, वे नियमित जीवन बिताते हैं अर्थात् वे शास्त्रों तथा विद्वानों द्वारा बताये गये आदेशों का निर्वाह करते हैं । मनुष्य को चाहिए कि प्रामाणिक शास्त्रों के अनुसार ही कर्तव्य निभाए, यह प्रकृति दैवी कहलाती है । जो शास्त्र विहित विधानों को नहीं मानता और अपनी सनक के अनुसार कार्य करता है, वह आसुरी कहलाता है । शास्त्र के विधिविधानों के प्रति आज्ञा भाव ही एकमात्र कसौटी है, अन्य नहीं । वैदिक साहित्य में उल्लेख है कि देवता तथा असुर दोनों ही प्रजापति से उत्पन्न हुए, अन्तर इतना ही है कि एक श्रेणी के लोग वैदिक आदेशों को मानते हैं और दूसरे नहीं मानते ।