HI/BG 16.21: Difference between revisions
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Latest revision as of 17:25, 13 August 2020
श्लोक 21
- त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
- कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥२१॥
शब्दार्थ
त्रि-विधम्—तीन प्रकार का; नरकस्य—नरक का; इदम्—यह; द्वारम्—द्वार; नाशनम्—विनाशकारी; आत्मन:—आत्मा का; काम:—काम; क्रोध:—क्रोध; तथा—और; लोभ:—लोभ; तस्मात्—अतएव; एतत्—इन; त्रयम्—तीनों को; त्यजेत्—त्याग देना चाहिए।
अनुवाद
इस नरक के तीन द्वार हैं – काम, क्रोध और लोभ । प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि इन्हें त्याग दे, क्योंकि इनसे आत्मा का पतन होता है ।
तात्पर्य
यहाँ पर आसुरी जीवन आरम्भ होने का वर्णन हुआ है । मनुष्य अपने काम को तुष्ट करना चाहता है, किन्तु जब उसे पूरा नहीं कर पाता तो क्रोध तथा लोभ उत्पन्न होता है । जो बुद्धिमान मनुष्य आसुरी योनि में नहीं गिरना चाहता, उसे चाहिए कि वह इन तीनों शत्रुओं का परित्याग कर दे, क्योंकि ये आत्मा का हनन इस हद तक कर देते हैं कि इस भवबन्धन से मुक्ति की सम्भावना नहीं रह जाती ।