HI/BG 18.15: Difference between revisions
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:न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ॥१५॥ | |||
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Latest revision as of 14:28, 16 August 2020
श्लोक 15
- शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः ।
- न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ॥१५॥
शब्दार्थ
शरीर—शरीर से; वाक्—वाणी से; मनोभि:—तथा मन से; यत्—जो; कर्म—कर्म; प्रारभते—प्रारम्भ करता है; नर:—व्यक्ति; न्याय्यम्—उचित, न्यायपूर्ण; वा—अथवा; विपरीतम्—(न्याय) विरुद्ध; वा—अथवा; पञ्च—पाँच; एते—ये सब; तस्य—उसके; हेतव:—कारण।
अनुवाद
मनुष्य अपने शरीर, मन या वाणी से जो भी उचित या अनुचित कर्म करता है, वह इन पाँच कारणों के फल स्वरूप होता है ।
तात्पर्य
इस श्लोक में न्याय्य (उचित) तथा विपरीत (अनुचित) शब्द अत्यन्त महत्त्व पूर्ण हैं । सही कार्य शास्त्रों में निर्दिष्ट निर्देशों के अनुसार किया जाता है और अनुचित कार्य में शास्त्रीय आदेशों की अवहेलना की जाती है । किन्तु जो कर्म किया जाता है, उसकी पूर्णता के लिए पाँच कारणों की आवशयकता पड़ती है ।