HI/BG 18.36: Difference between revisions
(Bhagavad-gita Compile Form edit) |
(No difference)
|
Revision as of 07:23, 18 August 2020
श्लोक 36
- k
शब्दार्थ
सुखम्—सुख; तु—लेकिन; इदानीम्—अब; त्रि-विधम्—तीन प्रकार का; शृणु—सुनो; मे—मुझसे; भरत-ऋषभ—हे भरतश्रेष्ठ; अभ्यासात्—अभ्यास से; रमते—भोगता है; यत्र—जहाँ; दु:ख—दु:ख का; अन्तम्—अन्त; च—भी; निगच्छति—प्राह्रश्वत करता है।
अनुवाद
हे भरतश्रेष्ठ! अब मुझसे तीन प्रकार के सुखों के विषय में सुनों,जिनके द्वारा बद्धजीव भोग करता है और जिसके द्वारा कभी-कभी दुखों का अन्त हो जाताहै |जो प्रारम्भ में विष जैसा लगता है, लेकिन अन्त में अमृत के समान है औरजो मनुष्य में आत्म-साक्षात्कार जगाता है, वह सात्त्विक सुख कहलाता है |
तात्पर्य
बद्धजीव भौतिक सुख भोगने की बारम्बार चेष्टा करता है | इसप्रकार वह चर्वित चर्वण करता है | लेकिन कभी-कभी ऐसे भोग के अन्तर्गत वह किसीमहापुरुष की संगति से भवबन्धन से मुक्त हो जाता है | दूसरे शब्दों में, बद्धजीवसदा ही किसी न किसी इन्द्रियतृप्ति में लगा रहता है, लेकिन जब सुसंगति से यह समझलेता है कि यह तो एक ही वस्तु की पुनरावृत्ति है और उसमें वास्तविक कृष्णभावनामृतका उदय होता है, तो कभी-कभी वह ऐसे तथाकथित आवृत्तिमूलक सुख से मुक्त हो जाता है |
आत्म-साक्षात्कार के साधन में मन तथा इन्द्रियों को वश में करने तथामन को आत्मलेंद्रित करने के लिए नाना प्रकार के विधि-विधानों का पालन करना पड़ता है| ये सारी विधियाँबहुत कठिन और विष के समान अत्यन्त कड़वी लगने वाली हैं, लेकिनयदि कोई इन नियमों के पालन में सफल हो जाता है और दिव्य पद को प्राप्त हो जाता है,तो वह वास्तविक अमृत का पान करने लगता है और जीवन का सुख प्राप्त करता है |