HI/Prabhupada 0319 भगवानको स्वीकार करो, भगवानके सेवकके रूपमें अपनी स्थितिको स्वीकार करो और भगवानकी सेवा करो: Difference between revisions

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इसी तरह, धर्म  का मतलब है भगवान के प्रति आज्ञाकारिता । तो हिंदू धर्म कहॉ है? ईसाई धर्म कहॉ है? मुस्लिम धर्म कहॉ है? भगवान हर जगह हैं, और हम बस भगवान की अाज्ञा का पालन करने के लिए हैं । एक ही धर्म है, भगवान के लिए आज्ञाकारिता । क्यों इन लोगोने इस हिंदू धर्म, मुस्लिम धर्म, ईसाई धर्म, इस धर्म, का निर्माण किया है ...? इसलिए वे सभी तथाकथित धर्म हैं । असली धर्म आज्ञाकारी है ... धर्मम तु साक्षाद भगवत प्रणीतम ([[Vanisource:SB 6.3.19|श्रीमद भागवतम ६.३.१९]]) । जैसे कानून की तरह । कानून राज्य द्वारा बनाया जाता है । कानून, हिंदू कानून, मुस्लिम कानून, ईसाई कानून, यह कानून, वह कानून - ऐसा नहीं हो सकता । कानून हर किसी के लिए है । राज्य के लिए आज्ञाकारिता । यह कानून है ।  
इसी तरह, धर्म  का मतलब है भगवान के प्रति आज्ञाकारिता । तो हिंदू धर्म कहॉ है? ईसाई धर्म कहॉ है? मुस्लिम धर्म कहॉ है? भगवान हर जगह हैं, और हम बस भगवान की अाज्ञा का पालन करने के लिए हैं । एक ही धर्म है, भगवान के लिए आज्ञाकारिता । क्यों इन लोगोने इस हिंदू धर्म, मुस्लिम धर्म, ईसाई धर्म, इस धर्म, का निर्माण किया है ...? इसलिए वे सभी तथाकथित धर्म हैं । असली धर्म आज्ञाकारी है ... धर्मम तु साक्षाद भगवत प्रणीतम ([[Vanisource:SB 6.3.19|श्रीमद भागवतम ६.३.१९]]) । जैसे कानून की तरह । कानून राज्य द्वारा बनाया जाता है । कानून, हिंदू कानून, मुस्लिम कानून, ईसाई कानून, यह कानून, वह कानून - ऐसा नहीं हो सकता । कानून हर किसी के लिए है । राज्य के लिए आज्ञाकारिता । यह कानून है ।  


इसी तरह, धर्म का मतलब है भगवान के प्रति आज्ञाकारिता । तो फिर जिसे भगवान की कोई अवधारणा ना हो, भगवान का कोई विचार न हो, धर्म कहॉ है? यह तथाकथित धर्म है । इसलिए भागवत में तुम पाअोगे, धर्म: प्रोज्जहित-कैतवो अत्र ([[Vanisource:SB 1.1.2|श्रीमद भागवतम १.१.२]]) "धर्म के सभी तथाकथित प्रकार अस्वीकार किए जाते हैं ।" और कृष्ण नें भी वही कहा है,  सर्व- धर्मान परित्यज्य ([[Vanisource:BG 18.66 (1972)|भ.गी. १८.६६]]) "तुम सभी तथाकथित धर्म छोड़ दो । तुम बस मुझको आत्मसमर्पण करो । यही असली धर्म है ।" तथाकथित धर्म पर अटकलों का क्या फायदा है । यह सभी धर्म है ही नहीं ।  
इसी तरह, धर्म का मतलब है भगवान के प्रति आज्ञाकारिता । तो फिर जिसे भगवान की कोई अवधारणा ना हो, भगवान का कोई विचार न हो, धर्म कहॉ है? यह तथाकथित धर्म है । इसलिए भागवत में तुम पाअोगे, धर्म: प्रोज्जहित-कैतवो अत्र ([[Vanisource:SB 1.1.2|श्रीमद भागवतम १.१.२]]) "धर्म के सभी तथाकथित प्रकार अस्वीकार किए जाते हैं ।" और कृष्ण नें भी वही कहा है,  सर्व- धर्मान परित्यज्य ([[HI/BG 18.66|भ.गी. १८.६६]]) "तुम सभी तथाकथित धर्म छोड़ दो । तुम बस मुझको आत्मसमर्पण करो । यही असली धर्म है ।" तथाकथित धर्म पर अटकलों का क्या फायदा है । यह सभी धर्म है ही नहीं ।  


जैसे तथाकथित कानून की तरह । कानून तथाकथित नहीं हो सकता है । कानून कानून है, राज्य द्वारा दिया गया । इसी तरह, धर्म  का मतलब है ईश्वर द्वारा दिए गए आदेश । यही धर्म है । अगर तुम अनुसरण करते हो, तो तुम धार्मिक हो । अगर तुम अनुसरण नहीं करते हो, तो तुम दानव हो । बहुत ही सरल बातें है । तो यह हर किसी की समझ में आएगा । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन है ही बातों को सरल बनाने के लिए । भगवान को स्वीकार करो, भगवान के सेवक के रूप में अपनी स्थिति को स्वीकार करो और भगवान की सेवा करो । बस, तीन शब्दों में ।  
जैसे तथाकथित कानून की तरह । कानून तथाकथित नहीं हो सकता है । कानून कानून है, राज्य द्वारा दिया गया । इसी तरह, धर्म  का मतलब है ईश्वर द्वारा दिए गए आदेश । यही धर्म है । अगर तुम अनुसरण करते हो, तो तुम धार्मिक हो । अगर तुम अनुसरण नहीं करते हो, तो तुम दानव हो । बहुत ही सरल बातें है । तो यह हर किसी की समझ में आएगा । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन है ही बातों को सरल बनाने के लिए । भगवान को स्वीकार करो, भगवान के सेवक के रूप में अपनी स्थिति को स्वीकार करो और भगवान की सेवा करो । बस, तीन शब्दों में ।  
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Latest revision as of 17:39, 1 October 2020



Room Conversation with Sanskrit Professor, other Guests and Disciples -- February 12, 1975, Mexico

महेमान (४): तो धर्म का वहाँ मतलब है धार्मिक आस्था होना या कर्तव्य ?

प्रभुपाद: नहीं, धर्म का मतलब है कर्तव्य, वर्णाश्रम-धर्म । वह भी त्याग दिया जाता है । इसका मतलब है कि हमारा एकमात्र कर्तव्य है कृष्ण भावनाभावित होना । उन्होंने कहा, सर्व-धर्मान परित्यज्य । शुरुआत में उन्होंने कहा कि धर्म-संस्थापनार्थाय । हां । युगे युगे सम्भवामि । अब, वे कहते हैं, "मैं धर्म के सिद्धांतों को पुनरस्थापित करने के लिए अवतरित होता हूँ ।" तो अंतिम चरण में उन्होंने कहा कि सर्व-धर्मान परित्यज्य ।

इसका मतलब है कि जो तथाकथित धर्म, या धर्म, दुनिया में चल रहे हैं, वे असली नहीं हैं । और भागवत इसलिए कहता है कि धर्म: प्रोज्जहित-कैतवो अत्र (श्रीमद भागवतम १.१.२), कि, "सभी प्रकार के तथाकथित धर्म यहां खारिज कर दिए जाते है ।" तथाकथित धर्म, वे क्या हैं? तथाकथित... सोने की तरह । सोना सोना है । अगर सोना किसी हिन्दू के हाथ में है, तो यह हिंदू सोना कहलाएगा?

इसी तरह, धर्म का मतलब है भगवान के प्रति आज्ञाकारिता । तो हिंदू धर्म कहॉ है? ईसाई धर्म कहॉ है? मुस्लिम धर्म कहॉ है? भगवान हर जगह हैं, और हम बस भगवान की अाज्ञा का पालन करने के लिए हैं । एक ही धर्म है, भगवान के लिए आज्ञाकारिता । क्यों इन लोगोने इस हिंदू धर्म, मुस्लिम धर्म, ईसाई धर्म, इस धर्म, का निर्माण किया है ...? इसलिए वे सभी तथाकथित धर्म हैं । असली धर्म आज्ञाकारी है ... धर्मम तु साक्षाद भगवत प्रणीतम (श्रीमद भागवतम ६.३.१९) । जैसे कानून की तरह । कानून राज्य द्वारा बनाया जाता है । कानून, हिंदू कानून, मुस्लिम कानून, ईसाई कानून, यह कानून, वह कानून - ऐसा नहीं हो सकता । कानून हर किसी के लिए है । राज्य के लिए आज्ञाकारिता । यह कानून है ।

इसी तरह, धर्म का मतलब है भगवान के प्रति आज्ञाकारिता । तो फिर जिसे भगवान की कोई अवधारणा ना हो, भगवान का कोई विचार न हो, धर्म कहॉ है? यह तथाकथित धर्म है । इसलिए भागवत में तुम पाअोगे, धर्म: प्रोज्जहित-कैतवो अत्र (श्रीमद भागवतम १.१.२) "धर्म के सभी तथाकथित प्रकार अस्वीकार किए जाते हैं ।" और कृष्ण नें भी वही कहा है, सर्व- धर्मान परित्यज्य (भ.गी. १८.६६) "तुम सभी तथाकथित धर्म छोड़ दो । तुम बस मुझको आत्मसमर्पण करो । यही असली धर्म है ।" तथाकथित धर्म पर अटकलों का क्या फायदा है । यह सभी धर्म है ही नहीं ।

जैसे तथाकथित कानून की तरह । कानून तथाकथित नहीं हो सकता है । कानून कानून है, राज्य द्वारा दिया गया । इसी तरह, धर्म का मतलब है ईश्वर द्वारा दिए गए आदेश । यही धर्म है । अगर तुम अनुसरण करते हो, तो तुम धार्मिक हो । अगर तुम अनुसरण नहीं करते हो, तो तुम दानव हो । बहुत ही सरल बातें है । तो यह हर किसी की समझ में आएगा । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन है ही बातों को सरल बनाने के लिए । भगवान को स्वीकार करो, भगवान के सेवक के रूप में अपनी स्थिति को स्वीकार करो और भगवान की सेवा करो । बस, तीन शब्दों में ।