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==== श्लोक 2 ====
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:एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
 
:स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥२॥
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के गुणों का लाभ उठाते हैं। अतएव अंग्रेजी में गीता के एक संस्करण की
के गुणों का लाभ उठाते हैं। अतएव अंग्रेजी में गीता के एक संस्करण की
नितान्त आवश्यकता थी जो परम्परा (गुरु-परम्परा) से प्राह्रश्वत हो। प्रस्तुत
नितान्त आवश्यकता थी जो परम्परा (गुरु-परम्परा) से प्राह्रश्वत हो। प्रस्तुत
प्रयास इसी आवश्यकता की पूॢत के उद्देश्य से किया गया है। भगवद्गीता
प्रयास इसी आवश्यकता की पूर्ति के उद्देश्य से किया गया है। भगवद्गीता
यथारूप मानवता के लिए महान वरदान है, किन्तु यदि इसे मानसिक
यथारूप मानवता के लिए महान वरदान है, किन्तु यदि इसे मानसिक
चिन्तन समझा जाय तो यह समय का अपव्यय होगा।
चिन्तन समझा जाय तो यह समय का अपव्यय होगा।

Latest revision as of 08:11, 5 February 2024

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 2

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥२॥

शब्दार्थ

एवम्—इस प्रकार; परम्परा—गुरु-परम्परा से; प्राह्रश्वतम्—प्राह्रश्वत; इमम्—इस विज्ञान को; राज-ऋषय:—साधु राजाओं ने; विदु:—जाना; स:—वह ज्ञान; कालेन—कालक्रम में; इह—इस संसार में; महता—महान; योग:—परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, योगविद्या; नष्ट:—छिन्न-भिन्न हो गया; परन्तप—हे शत्रुओं को दमन करने वाले, अर्जुन।.

अनुवाद

इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राह्रश्वत किया गया और राजॢषयों ने इसी विधि से इसे समझा। किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अत: यह विज्ञान यथारूप में लुह्रश्वत हो गया लगता है।

तात्पर्य

यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि गीता विशेष रूप से राजॢषयों के लिए थी क्योंकि वे इसका उपयोग प्रजा के ऊपर शासन करने में करते थे। निश्चय ही भगवद्गीता कभी भी आसुरी पुरुषों के लिए नहीं थी जिनसे किसी को भी इसका लाभ न मिलता और जो अपनी-अपनी सनक के अनुसार विभिन्न प्रकार की विवेचना करते। अत: जैसे ही असाधु भाष्यकारों के निहित स्वार्थों से गीता का मूल उद्देश्य उच्छिन्न हुआ वैसे ही पुन: गुरु- परम्परा स्थापित करने की आवश्यकता प्रतीत हुई। पाँच हजार वर्ष पूर्व भगवान् ने स्वयं देखा कि गुरु-परम्परा टूट चुकी है, अत: उन्होंने घोषित किया कि गीता का उद्देश्य नष्ट हो चुका है। इसी प्रकार इस समय गीता के इतने संस्करण उपलब्ध हैं (विशेषतया अंग्रेजी में) कि उनमें से प्राय: सभी प्रामाणिक गुरु-परम्परा के अनुसार नहीं हैं। विभिन्न संसारी विद्वानों ने गीता की असंख्य टीकाएँ की हैं, किन्तु वे प्राय: सभी श्रीकृष्ण को स्वीकार नहीं करते, यद्यपि वे कृष्ण के नाम पर अच्छा व्यापार चलाते हैं। यह आसुरी प्रवृत्ति है, क्योंकि असुरगण ईश्वर में विश्वास नहीं करते, वे केवल परमेश्वर के गुणों का लाभ उठाते हैं। अतएव अंग्रेजी में गीता के एक संस्करण की नितान्त आवश्यकता थी जो परम्परा (गुरु-परम्परा) से प्राह्रश्वत हो। प्रस्तुत प्रयास इसी आवश्यकता की पूर्ति के उद्देश्य से किया गया है। भगवद्गीता यथारूप मानवता के लिए महान वरदान है, किन्तु यदि इसे मानसिक चिन्तन समझा जाय तो यह समय का अपव्यय होगा।