HI/BG 5.11: Difference between revisions
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:योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥११॥ | |||
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ईहा यस्य हरेर्दास्ये कर्मणा मनसा गिरा | | ईहा यस्य हरेर्दास्ये कर्मणा मनसा गिरा | | ||
निखिलास्वप्यवस्थासु जीवन्मुक्तः स उच्यते || | निखिलास्वप्यवस्थासु जीवन्मुक्तः स उच्यते || |
Latest revision as of 04:42, 2 August 2020
श्लोक 11
- कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि ।
- योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥११॥
शब्दार्थ
कायेन—शरीर से; मनसा—मन से; बुद्ध्या—बुद्धि से; केवलै:—शुद्ध; इन्द्रियै:—इन्द्रियों से; अपि—भी; योगिन:—कृष्णभावनाभावित व्यक्ति; कर्म—कर्म; कुर्वन्ति—करते हैं; सङ्गम्—आसक्ति; त्यक्त्वा—त्याग कर; आत्म—आत्मा की; शुद्धये—शुद्धि के लिए।
अनुवाद
योगीजन आसक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं |
तात्पर्य
जब कोई कृष्णभावनामृत में कृष्ण की इन्द्रियतृप्ति के लिए शरीर, मन, बुद्धि अथवा इन्द्रियों द्वारा कर्म करता है तो वह भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के कार्यों से कोई भौतिक फल प्रकट नहीं होता | अतः सामान्य रूप से सदाचार कहे जाने वाले शुद्ध कर्म कृष्णभावनामृत में रहते हुए सरलता से सम्पन्न किये जा सकते है | श्रील रूप गोस्वामी में भक्तिरसामृतसिन्धु में (१.२.१८७) इसका वर्णन इस प्रकार किया है –
ईहा यस्य हरेर्दास्ये कर्मणा मनसा गिरा |
निखिलास्वप्यवस्थासु जीवन्मुक्तः स उच्यते ||
"अपने शरीर, मन, बुद्धि तथा वाणी से कृष्णभावनामृत में कर्म करता हुआ (कृष्णसेवा में) व्यक्ति इस संसार में भी मुक्त रहता है, भले ही वह तथाकथित अनेक भौतिक कार्यकलापों में व्यस्त क्यों न रहे |" उसमें अहंकार नहीं रहता क्योंकि वह इसमें विश्र्वास नहीं रखता कि वह भौतिक शरीर है अथवा यह शरीर उसका है | वह जानता है कि वह यह शरीर नहीं है और न यह शरीर ही उसका है | वह स्वयं कृष्ण का है और उसका यह शरीर भी कृष्ण की सम्पत्ति है| जबवह शरीर, मन, बुद्धि, वाणी, जीवन, सम्पत्तिआदि से उत्पन्न प्रत्येक वस्तु को, जो भी उसके अधिकार में है, कृष्ण की सेवा में लगाता है तो वहतुरन्त कृष्ण से जुड़ जाता है | वह कृष्ण से एकरूप हो जाता है और उस अहंकार से रहित होता है जिसके कारणमनुष्य सोचता है कि मैं शरीर हूँ | यही कृष्णभावनामृत की पूर्णावस्था है |