HI/BG 17.7: Difference between revisions
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:यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु ॥७॥ | |||
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Latest revision as of 16:40, 14 August 2020
श्लोक 7
- आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः ।
- यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु ॥७॥
शब्दार्थ
आहार:—भोजन; तु—निश्चय ही; अपि—भी; सर्वस्य—हर एक का; त्रि-विध:—तीन प्रकार का; भवति—होता है; प्रिय:—ह्रश्वयारा; यज्ञ:—यज्ञ; तप:—तपस्या; तथा—और; दानम्—दान; तेषाम्—उनका; भेदम्—अन्तर; इमम्—यह; शृणु—सुनो।
अनुवाद
यहाँ तक कि प्रत्येक व्यक्ति जो भोजन पसन्द करता है, वह भी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का होता है । यही बात यज्ञ, तपस्या तथा दान के लिए भी सत्य है । अब उनके भेदों के विषय में सुनो ।
तात्पर्य
प्रकृति के भिन्न-भिन्न गुणों के अनुसार भोजन, यज्ञ, तपस्या और दान में भेद होते हैं । वे सब एक से नहीं होते । जो लोग यह समझ सकते हैं कि किस गुण में क्या क्या करना चाहिए, वे वास्तव में बुद्धिमान हैं । जो लोग सभी प्रकार के यज्ञ, भोजन या दान को एकसा मानकर उनमें अन्तर नहीं कर पाते, वे अज्ञानी हैं । ऐसे भी प्रचारक लोग हैं, जो यह कहते हैं कि मनुष्य जो चाहे वह कर सकता है और सिद्धि प्राप्त कर सकता है । लेकिन ये मूर्ख मार्गदर्शक शास्त्रों के आदेशानुसार कार्य नहीं करते । ये अपनी विधियाँ बनाते हैं और सामान्य जनता को भ्रान्त करते रहते हैं ।