HI/BG 18.11: Difference between revisions
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:यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥११॥ | |||
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Latest revision as of 14:24, 16 August 2020
श्लोक 11
- न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।
- यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥११॥
शब्दार्थ
न—कभी नहीं; हि—निश्चय ही; देह-भृता—देहधारी द्वारा; शक्यम्—सम्भव है; त्यक्तुम्—त्यागने के लिए; कर्माणि—कर्म; अशेषत:—पूर्णतया; य:—जो; तु—लेकिन; कर्म—कर्म के; फल—फल का; त्यागी—त्याग करने वाला; स:—वह; त्यागी—त्यागी; इति—इस प्रकार; अभिधीयते—कहलाता है।
अनुवाद
निस्सन्देह किसी भी देहधारी प्राणी के लिए समस्त कर्मों का परित्याग कर पाना असम्भव है । लेकिन जो कर्म फल का परित्याग करता है, वह वास्तव में त्यागी है ।
तात्पर्य
भगवद्गीता में कहा गया है कि मनुष्य कभी भी कर्म का त्याग नहीं कर सकता। अतएव जो कृष्ण के लिए कर्म करता है और कर्म फलों को भोगता नहीं तथा जो कृष्ण को सब कुछ अर्पित करता है, वही वास्तविक त्यागी है । अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ के अनेक सदस्य हैं, जो अपने अपने कार्यालयों, कारखानों या अन्य स्थानों में कठिन श्रम करते हैं और वे जो कुछ कमाते हैं, उसे संघ को दान दे देते हैं । ऐसे महात्मा व्यक्ति वास्तव में संन्यासी हैं और वे संन्यास में स्थित होते हैं । यहाँ स्पष्ट रूप से बताया गया है कि कर्म फलों का परित्याग किस प्रकार और किस प्रयोजन के लिए किया जाय ।