HI/BG 18.31: Difference between revisions
(Bhagavad-gita Compile Form edit) |
No edit summary |
||
Line 6: | Line 6: | ||
==== श्लोक 31 ==== | ==== श्लोक 31 ==== | ||
<div class=" | <div class="devanagari"> | ||
: | :यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च । | ||
:अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ॥३१॥ | |||
</div> | </div> | ||
Latest revision as of 07:18, 18 August 2020
श्लोक 31
- यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च ।
- अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ॥३१॥
शब्दार्थ
यया—जिसके द्वारा; धर्मम्—धर्म को; अधर्मम्—अधर्म को; च—तथा; कार्यम्—करणीय; च—भी; अकार्यम्—अकरणीय को; एव—निश्चय ही; च—भी; अयथावत्—अ धूरे ढंग से; प्रजानाति—जानती है; बुद्धि:—बुद्धि; सा—वह; पार्थ—हे पृथापुत्र; राजसी—रजोगुणी।
अनुवाद
हे पृथापुत्र! जो बुद्धि धर्म तथा अधर्म,करणीय तथा अकरणीय कर्म में भेद नहीं कर पाती,वह राजसी है ।