HI/Prabhupada 0755 - समुद्र पीड़ित: Difference between revisions
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प्रभुपाद: तुमने भगवद गीता पढ़ी | प्रभुपाद: तुमने भगवद गीता पढ़ी है । सर्व-योनिशु: जन्म की सभी योनीओ में । सर्व-योनिशु संभवन्ति मुर्तयो य: ([[HI/BG 14.4|भ.गी. १४.४]]) । जीवन के ८४,००,००० विभिन्न रूप हैं । यह सब जिव आत्माए है, परन्तु कर्म के अनुसार, उन्हे विभिन्न शरिर मिले है । यह अंतर है । जैसे हमे अपने पसन्द से अलग अलग कपडे मिलते है, इसी तरह, हमें अपनी पसंद के हिसाब से अलग-अलग शरीर भी मिलते है । आज सुबह हम पीड़ितो के बारे में बात कर रहे थे... क्या कहा जाता है ? समुद्र ग्रस्त लोगो को ? | ||
भक्त: | भक्त: सर्फर्स । | ||
प्रभुपाद: सर्फ़र, | प्रभुपाद: सर्फ़र, हाँ । (भक्त हँसते हैं) सर्फर । मैं कहता हूँ, "पीड़ित ।" 'समुद्र-पीड़ित।" (हंसी) समुद्र-पीड़ित, यह व्यावहारिक है, क्योंकि हम एक ऐसी स्थिति पैदा कर रहे हैं जिसके द्वारा हम एक मछली हो जाएंगे । (हंसी) हाँ । संदूषण । बस आप जान बुझकर कोई रोग से संक्रमित होते हो, तो आपको वो रोग से पीड़ित होना ही होगा । कारणम गुण-संगो अस्य सद असद जन्म योनिषु ([[HI/BG 13.22|भ.गी. १३.२२]]), भगवद गीता में | क्यों विभिन्न प्रकार के जीवन की योनीआ है ? क्या कारण है ? उस कारण का मतलब है कारणम । कृष्ण भगवद गीता में कहते हैं... कारणम गुण-संगो अस्य सद असद जन्म योनिषु (भ.गी. १३.२२) | प्रकृते: क्रियमाणानि ([[HI/BG 3.27|भ.गी. ३.२७]]) । प्रकृति-स्थो अपि पुरुष: भुञ्जते तद-गुणान ([[HI/BG 13.22|भ.गी. १३.२२]]) । | ||
तो कारण यह है... जेसे हम संक्रमित कर रहे है... प्रकृति का नियम इतना पूर्ण है कि अगर तुम कोइ रोग संक्रमित करते हो, कुछ संदूषण, तो तुम्हे भुगतना होगा । यह प्रकृति का नियम स्वयं ही चलता रहता है । कारणम गुण संगो अस्य । तो भौतिक प्रकृति के तीन गुण है - सत्त्व, रजस, तमोगुण । जब तक हम इस भौतिक दुनिया में हैं, पुरुष: प्रकृति-स्थो अपि भुञ्जन्ते तद-गुणान । अगर हम कोइ निश्चित जगह में रहते हैं, तो हम उस जगह के गुणों से प्रभावित होते है । तो तीन गुण हैं: सत्व-गुण, रजो-गुण... या तो हम सत्व गुण का संग लेते है, या तो रजो गुण या तोह रजो गुण, अरेह, तमो गुण । | |||
अब तीन गूनी तीन, नौ बन जाता है, और नौ गूनी नौ, इक्यासी हो जाता है । तो मिश्रण । रंगो की तरह । नीला, लाल और पीला: तीन रंग हैं । अब, रंग निर्माण करने में जो लोग विशेषज्ञ हैं, कलाकार, वे अलग तरह से इन तीन रंगों का मिश्रण करते है और प्रदर्शित करते हैं । इसी तरह, गुणों के संग या मिश्रण के अनुसार, कारणम गुण संगो अस्य - हमे विभिन्न प्रकार के शरीर मिलते है । इसलिए हम शरीर की कई किस्मे देखते हैं । कारणम गुण संगो अस्य ([[HI/BG 13.22|भ.गी. १३.२२]]) | तो, जो व्यक्ति बहुत ज्यादा खुशी ले रही मछली की तरह समुद्र में नाच रहा है, तो वो प्रकृति के गुणों से दूषित हो रहा है जिस से अगले जन्म में वो एक मछली बनेगा । वो सागर के साथ नृत्य करने के लिए बहुत मुक्त हो जाएगा । (हंसी) अब, उसे फिर से मनुष्य के मंच पर आने के लिए लाखों वर्ष लग जाएंगे । | |||
जलजा नव लक्षाणि स्थावरा लक्ष-विंशति । उसे मछली के जीवन से गुज़रना पड़ेगा । जीवन की ९,००,००० विभिन्न प्रजातियां हैं। फिर आप फिरसे भूमि पे आते हो - आप पेड, पौधे और ऐसे | आपको बिस लाख विभिन्न रूपों के माध्यम से जाना पडेगा । यही उत्क्रांति है । डार्विन का जो उत्क्रांतिवाद है, वो पूर्ण रूप से समझाया नहीं गया है । यह वैदिक साहित्य में विस्तार से बताया है । तो बस... एक पेड़ दस हजार के वर्ष से खडा है, हमें उस जीवन से गुज़रना पड़ेगा । लेकिन कोई सही ज्ञान नहीं है । हम सोच रहे हैं कि अभी हम बहुत अच्छे अमेरिकी शरीर या भारतीय शरीर मे हैं । नहीं | इस जीवन मे आने के लिये कई साल लग गए । इसलिए शास्त्र का कहना है, लब्ध्वा सुदुर्लभम इदम बहू-सम्भवान्ते ([[Vanisource:SB 11.9.29|श्रीमद भागवतम ११.९.२९]]): "तुम्हे ये मानव जीवन कई, कई लाखों साल के इंतजार के बाद मिला है।" तो इसका दुरुपयोग न करो । यही वैदिक सभ्यता है, मानव जीवन का दुरुपयोग न करे । | |||
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Latest revision as of 17:44, 1 October 2020
Lecture on SB 6.1.7 -- Honolulu, May 8, 1976
प्रभुपाद: तुमने भगवद गीता पढ़ी है । सर्व-योनिशु: जन्म की सभी योनीओ में । सर्व-योनिशु संभवन्ति मुर्तयो य: (भ.गी. १४.४) । जीवन के ८४,००,००० विभिन्न रूप हैं । यह सब जिव आत्माए है, परन्तु कर्म के अनुसार, उन्हे विभिन्न शरिर मिले है । यह अंतर है । जैसे हमे अपने पसन्द से अलग अलग कपडे मिलते है, इसी तरह, हमें अपनी पसंद के हिसाब से अलग-अलग शरीर भी मिलते है । आज सुबह हम पीड़ितो के बारे में बात कर रहे थे... क्या कहा जाता है ? समुद्र ग्रस्त लोगो को ?
भक्त: सर्फर्स ।
प्रभुपाद: सर्फ़र, हाँ । (भक्त हँसते हैं) सर्फर । मैं कहता हूँ, "पीड़ित ।" 'समुद्र-पीड़ित।" (हंसी) समुद्र-पीड़ित, यह व्यावहारिक है, क्योंकि हम एक ऐसी स्थिति पैदा कर रहे हैं जिसके द्वारा हम एक मछली हो जाएंगे । (हंसी) हाँ । संदूषण । बस आप जान बुझकर कोई रोग से संक्रमित होते हो, तो आपको वो रोग से पीड़ित होना ही होगा । कारणम गुण-संगो अस्य सद असद जन्म योनिषु (भ.गी. १३.२२), भगवद गीता में | क्यों विभिन्न प्रकार के जीवन की योनीआ है ? क्या कारण है ? उस कारण का मतलब है कारणम । कृष्ण भगवद गीता में कहते हैं... कारणम गुण-संगो अस्य सद असद जन्म योनिषु (भ.गी. १३.२२) | प्रकृते: क्रियमाणानि (भ.गी. ३.२७) । प्रकृति-स्थो अपि पुरुष: भुञ्जते तद-गुणान (भ.गी. १३.२२) ।
तो कारण यह है... जेसे हम संक्रमित कर रहे है... प्रकृति का नियम इतना पूर्ण है कि अगर तुम कोइ रोग संक्रमित करते हो, कुछ संदूषण, तो तुम्हे भुगतना होगा । यह प्रकृति का नियम स्वयं ही चलता रहता है । कारणम गुण संगो अस्य । तो भौतिक प्रकृति के तीन गुण है - सत्त्व, रजस, तमोगुण । जब तक हम इस भौतिक दुनिया में हैं, पुरुष: प्रकृति-स्थो अपि भुञ्जन्ते तद-गुणान । अगर हम कोइ निश्चित जगह में रहते हैं, तो हम उस जगह के गुणों से प्रभावित होते है । तो तीन गुण हैं: सत्व-गुण, रजो-गुण... या तो हम सत्व गुण का संग लेते है, या तो रजो गुण या तोह रजो गुण, अरेह, तमो गुण ।
अब तीन गूनी तीन, नौ बन जाता है, और नौ गूनी नौ, इक्यासी हो जाता है । तो मिश्रण । रंगो की तरह । नीला, लाल और पीला: तीन रंग हैं । अब, रंग निर्माण करने में जो लोग विशेषज्ञ हैं, कलाकार, वे अलग तरह से इन तीन रंगों का मिश्रण करते है और प्रदर्शित करते हैं । इसी तरह, गुणों के संग या मिश्रण के अनुसार, कारणम गुण संगो अस्य - हमे विभिन्न प्रकार के शरीर मिलते है । इसलिए हम शरीर की कई किस्मे देखते हैं । कारणम गुण संगो अस्य (भ.गी. १३.२२) | तो, जो व्यक्ति बहुत ज्यादा खुशी ले रही मछली की तरह समुद्र में नाच रहा है, तो वो प्रकृति के गुणों से दूषित हो रहा है जिस से अगले जन्म में वो एक मछली बनेगा । वो सागर के साथ नृत्य करने के लिए बहुत मुक्त हो जाएगा । (हंसी) अब, उसे फिर से मनुष्य के मंच पर आने के लिए लाखों वर्ष लग जाएंगे ।
जलजा नव लक्षाणि स्थावरा लक्ष-विंशति । उसे मछली के जीवन से गुज़रना पड़ेगा । जीवन की ९,००,००० विभिन्न प्रजातियां हैं। फिर आप फिरसे भूमि पे आते हो - आप पेड, पौधे और ऐसे | आपको बिस लाख विभिन्न रूपों के माध्यम से जाना पडेगा । यही उत्क्रांति है । डार्विन का जो उत्क्रांतिवाद है, वो पूर्ण रूप से समझाया नहीं गया है । यह वैदिक साहित्य में विस्तार से बताया है । तो बस... एक पेड़ दस हजार के वर्ष से खडा है, हमें उस जीवन से गुज़रना पड़ेगा । लेकिन कोई सही ज्ञान नहीं है । हम सोच रहे हैं कि अभी हम बहुत अच्छे अमेरिकी शरीर या भारतीय शरीर मे हैं । नहीं | इस जीवन मे आने के लिये कई साल लग गए । इसलिए शास्त्र का कहना है, लब्ध्वा सुदुर्लभम इदम बहू-सम्भवान्ते (श्रीमद भागवतम ११.९.२९): "तुम्हे ये मानव जीवन कई, कई लाखों साल के इंतजार के बाद मिला है।" तो इसका दुरुपयोग न करो । यही वैदिक सभ्यता है, मानव जीवन का दुरुपयोग न करे ।