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*हम स्वीकार करते हैं की | *हम स्वीकार करते हैं की | ||
:* | :*श्रीला प्रभुपाद एक शुद्ध भक्त हैं, और वह सभी जीव आत्मायों को भगवान श्रीकृष्ण की प्रेमपूर्ण भक्ति सेवा में संलग्न करने के लिए सीधे भगवान श्रीकृष्ण द्वारा हि सशक्त किये गए हैं। यह सशक्तिकरण उनकी शिक्षाओं के भीतर पाए जाने वाले निरपेक्ष सत्य पर उनके अनूठे प्रदर्शन में सिद्ध होता है। | ||
:* | :*श्रीला प्रभुपाद की तुलना में आधुनिक समय में वैष्णव दर्शन का कोई बड़ा प्रतिपादक नहीं रहा है, और न ही कोई बड़ा सामाजिक आलोचक, जो इस समकालीन दुनिया को यथारूप समझा पाए। | ||
:* | :*श्रीला प्रभुपाद की शिक्षाएँ भावी पीढ़ियों के उनके लाखों अनुयायियों के लिए प्राथमिक आश्रय होंगी। | ||
:* | :*श्रीला प्रभुपाद चाहते थे कि उनकी शिक्षाओं का व्यापक रूप से वितरण किया जाए और उनकी शिक्षाओं को ठीक से समझा जाए। | ||
:* | :*एक विषयगत दृष्टिकोण के माध्यम से श्रीला प्रभुपाद की शिक्षाओं के भीतर पायी जाने वाली सच्चाइयों को समझने की प्रक्रिया बहुत बढ़ती है, और यह कि दृष्टि के हर कोण से उनकी शिक्षाओं का अन्वेषण करना, उसमे खोजबीन करना और उसे अच्छी तरह से संकलित करने का अपार मूल्य है। | ||
:* | :*श्रीला प्रभुपाद की सभी शिक्षाओं का किसी विशेष भाषा में अनुवाद करना श्रीला प्रभुपाद को उन जगहों पर अनंत काल तक निवास करने के लिए आमंत्रित करने के सामान है, जहाँ जहाँ उन भाषाओं को बोला जाता है। | ||
:* | :*अपनी शारीरिक अनुपस्थिति में, श्रीला प्रभुपाद को इस मिशन में उनकी सहायता करने के लिए कई वाणी-सेवको की आवश्यकता है। | ||
इस प्रकार, हम श्रीला प्रभुपाद की शिक्षाओं के भीतर पाए जाने वाले पूर्ण ज्ञान और वास्तविकताओं के व्यापक वितरण और उसकी उचित समझ की सुविधा के लिए वास्तव में एक गतिशील मंच बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं, इसलिए उन पर खुशी से काम किया जा सकता है। यह बस इतना आसान है। वह एकमात्र चीज़ जो हमें वाणीपीडिया के पूर्ण समापन से रोक रही है वो है समय; और वह भक्तगण जो इस कार्य को पूर्ण करने के लिए प्रतिबद्ध हैं, उनकी वाणी-सेवा के वो सारे बहुमूल्य पावन घंटे जो अभी देने शेष हैं। | |||
<big>''I thank you very much, all of you, for appreciating my humble service which I am trying to render as a matter of duty ordered by my Guru Maharaja. I request all my disciples to work cooperatively and I am sure our mission will advance without any doubt.''</big> [[Vanisource:710814 - Letter to Tamala Krishna written from London|'''– Srila Prabhupada Letter to Tamala Krishna das (GBC) - 14 August, 1971''']] | <big>''I thank you very much, all of you, for appreciating my humble service which I am trying to render as a matter of duty ordered by my Guru Maharaja. I request all my disciples to work cooperatively and I am sure our mission will advance without any doubt.''</big> [[Vanisource:710814 - Letter to Tamala Krishna written from London|'''– Srila Prabhupada Letter to Tamala Krishna das (GBC) - 14 August, 1971''']] |
Revision as of 12:15, 23 November 2019
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परिचयश्रीला प्रभुपाद ने उनकी शिक्षाओं पर बहुत अधिक महत्व दिया, इस प्रकार वाणिपीडिया श्रीला प्रभुपाद की शिक्षाओं के प्रति विशेष रूप से समर्पित है; जिसमें पुस्तकें, रिकॉर्ड किए गए व्याख्यान और वार्तालाप, पत्र आदि शामिल हैं। पूरा होने पर वाणिपीडिया दुनिया का प्रथम वाणी-मंदिर कहलायेगा। यह एक पवित्र स्थान होगा जहां प्रामाणिक आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्राप्त करने वाले लाखों श्रद्धालु श्रीला प्रभुपाद की शानदार शिक्षाओं से उत्तर और प्रेरणा ग्रहण करेंगे। जितना संभव हो सका है वाणिपीडिया को उतनी भाषाओं में एक विश्वकोश प्रारूप में प्रस्तुत किया गया है। वाणिपीडिया के लक्ष्यों का विवरण
सहयोग के कार्यवाणिपीडिया जैसा एकमात्र ज्ञानकोश का निर्माण करना केवल हजारों श्रद्धालुओं के सामूहिक सहयोगात्मक प्रयास द्वारा संभव है जो कि श्रीला प्रभुपाद के उपदेशों का परिश्रमपूर्वक संकलन और अनुवाद करते हैं। हम कम से कम १६ भाषाओं में श्रीला प्रभुपाद की सभी पुस्तकों, व्याख्यानों, वार्तालापों और पत्रों के अनुवाद को पूरा करना चाहते हैं और उसके अतिरिक्त नवंबर २०२७ तक वाणिपीडिया को कम से कम १०८ भाषाओं के कुछ प्रतिनिधित्व स्तर तक पहुंचाना चाहते हैं। अक्टूबर २०१७ तक पूर्ण बाइबिल को ६७० भाषाओं में अनुवादित किया गया है, न्यू टेस्टामेंट का १५२१ भाषाओं में अनुवाद किया गया है और बाइबल के भागों या कहानियों को ११२१ अन्य भाषाओं में अनुवादित किया गया है। इन आंकड़ों से पता चलता है कि श्रीला प्रभुपाद की शिक्षाओं में पर्याप्त वृद्धि होने के दौरान हमारा उद्देश्य उन प्रयासों की तुलना में बिल्कुल भी महत्वाकांक्षी नहीं है, जो की ईसाई लोग अपनी शिक्षाओं को विश्व स्तर पर फैलाने के लिए कर रहे हैं। हम सभी भक्तों को आमंत्रित करते हैं कि वे सभी मानवता के हित के लिए इंटरनेट तथा वेब पर श्रीला प्रभुपाद की बहुभाषी वाणी-उपस्थिति को प्रकट करने और बनाने के इस नेक प्रयास में शामिल हों। आह्वान१९६५ में श्रीला प्रभुपाद अमेरिका में बिन बुलाए पहुंचे। भले ही १९७७ में उनकी शानदार वापु उपस्थिति के दिन समाप्त हो गए हों, लेकिन वह अभी भी अपनी वाणी में उपस्थित हैं और यही उपस्थिति का अब हमें आह्वान करना चाहिए। वह हमारे समक्ष तभी उपस्थित रहेंगे जब हम उन्हें होने अंतरमन से पुकारेंगे और उनके प्रकट होने की भीख मांगेंगे। हमारे बीच उन्हें रखने की हमारी तीव्र इच्छा वह कुंजी है जिसके माध्यम से हम श्रीला प्रभुपाद का हमारे समक्ष प्राकट्यय संभव है। पूर्ण अभिव्यक्तिहम हमारे सामने श्रीला प्रभुपाद की आंशिक उपस्थिति नहीं चाहते हैं। हम उनकी पूर्ण वाणी-उपस्थिति चाहते हैं। उनके सभी रिकॉर्ड किए गए उपदेशों को पूरी तरह से संकलित किया जाना चाहिए और कई भाषाओं में अनुवादित किया जाना चाहिए। इस ग्रह के लोगों की भावी पीढ़ियों के लिए हमारी एकमात्र पेशकश है - श्रीला प्रभुपाद की शिक्षाओं का पूर्ण आश्रय। वाणी-उपस्थितिश्रीला प्रभुपाद की पूर्ण वाणी-उपस्थिति दो चरणों में दिखाई देगी। पहला - और आसान चरण - सभी भाषाओं में श्रीला प्रभुपाद की शिक्षाओं का संकलन और अनुवाद करना है। दूसरा - और अधिक कठिन चरण - सैकड़ों लोगों को पूरी तरह से उनकी शिक्षाओं के आश्रय लेने में सहयोग देना। अध्ययन करने के विभिन्न तरीके
दस लाख आचार्य
– श्रीचैतन्य-चरितामृत पर श्रील प्रभुपाद का व्याख्यान, ६ अप्रैल १९७५ टिप्पणीश्रीला प्रभुपाद का यह दृष्टि कथन स्वयं के लिए बोलता है - लोगों के लिए कृष्णभावनामृत को आसानी से समझने की सही योजना। दस लाख सशक्त शिक्षा-शिष्यों ने विनम्रतापूर्वक हमारे संस्थापक-आचार्य श्रीला प्रभुपाद के निर्देशों को जीया है और हमेशा पूर्णता और परिपक्वता के लिए प्रयास किया है। श्रीला प्रभुपाद स्पष्ट रूप से कहते हैं कि "ऐसी संगठन का निर्माण करो"। इस दृष्टि को पूरा करने के लिए वाणिपीडिया उत्साहपूर्वक इस कार्य में संलग्न है। कृष्णभावनामृत का विज्ञानभगवद गीता के नौवें अध्याय में कृष्णभावनामृत के इस विज्ञान को सभी ज्ञानों का राजा, सभी गोपनीय चीजों का राजा और पारलौकिक बोध का सर्वोच्च विज्ञान कहा जाता है। कृष्णभावनामृत एक पारलौकिक विज्ञान है जो एक ईमानदार भक्त को प्रकट किया जा सकता है जो भगवान की सेवा करने के लिए तैयार है। कृष्णभावनामृत शुष्क तर्कों से या शैक्षणिक योग्यता से प्राप्त नहीं होती है। कृष्णभावनामृत एक विश्वास नहीं है, जैसे कि हिंदू, ईसाई, बौद्ध या इस्लाम धर्म, लेकिन यह एक विज्ञान है। यदि कोई श्रीला प्रभुपाद की पुस्तकों को ध्यान से पढ़ता है, तो उन्हें कृष्णभावनामृत के सर्वोच्च विज्ञान का एहसास होगा और सभी लोगों के वास्तविक कल्याणकारी लाभ हेतु समान रूप से कृष्णभावनामृत फैलाने के लिए अधिक प्रेरित भी होंगे। भगवान चैतन्य का संकीर्तन आंदोलनभगवान श्री चैतन्य महाप्रभु संकीर्तन आंदोलन के जनक और उद्घाटनकर्ता हैं। जो व्यक्ति संकीर्तन आंदोलन के लिए, अपने जीवन, धन, बुद्धि तथा शब्दों को परे रखकर भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु की आराधना करता है, प्रभु ना केवल उसको पहचान जाते हैं बल्कि उसकी आराधना को अपने आशीर्वाद से संपन्न करते हैं। अन्य सभी को मूर्ख कहा जा सकता है, क्यूंकि उन सभी बलिदानों में से वह बलिदान सबसे यशस्वी है जिसमे व्यक्ति अपनी ऊर्जा का प्रयोग संकीर्तन आंदोलन के लिए करता है। संपूर्ण कृष्णभावनामृत आंदोलन, श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा उद्घाटन किए गए संकीर्तन आंदोलन के सिद्धांतों पर आधारित है। इसलिए जो संकीर्तन आंदोलन के माध्यम से ईश्वर के सर्वोच्च व्यक्तित्व को समझने की कोशिश करता है वह सब कुछ पूरी तरह से जान जाता है। वह सुमेधा हो जाता है, एक पर्याप्त बुद्धि वाला व्यक्ति। मानव समाज का पुनः आध्यात्मिकरणवर्तमान समय में मानव समाज, गुमनामी के अंधेरे में नहीं है। समाज ने पूरे विश्व में भौतिक सुख, शिक्षा और आर्थिक विकास के क्षेत्र में तेजी से प्रगति की है। लेकिन बड़े पैमाने पर सामाजिक निकाय में कहीं न कहीं एक झुंझलाहट है, और इसलिए कम महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी बड़े पैमाने पर झगड़े होते हैं। एक सुराग की जरूरत है, कि कैसे मानवता एक सामान्य कारण से जुड़कर शांति, मित्रता और समृद्धि में एक जुट हो जाए। श्रीमद-भागवतम इस जरूरत को पूरा करता है, क्योंकि यह संपूर्ण मानव समाज के पुन: आध्यात्मिकरण के लिए एक सांस्कृतिक प्रस्तुति है। सामान्य आबादी सामान्य रूप से आधुनिक राजनेताओं और लोगों के नेताओं के हाथों में उपकरण हैं। यदि केवल नेताओं का हृदय परिवर्तन होता है, तो निश्चित रूप से दुनिया के वातावरण में मौलिक परिवर्तन होगा। वास्तविक शिक्षा का उद्देश्य आत्म-साक्षात्कार, आत्मा के आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति होना चाहिए। सभी को दुनिया की सभी गतिविधियों को आध्यात्मिक बनाने में मदद करनी चाहिए। इस तरह की गतिविधियों से, प्रदर्शन करने वाले और प्रदिर्शित किए गए कार्य दोनों आध्यात्मिकता के साथ अधिभारित हो जाते हैं और प्रकृति की विधा को पार कर जाते हैं। वाणीपीडिया का मिशन वक्तव्य
वाणीपीडिया के निर्माण के लिए हमें क्या प्रेरित कर रहा है?
इस प्रकार, हम श्रीला प्रभुपाद की शिक्षाओं के भीतर पाए जाने वाले पूर्ण ज्ञान और वास्तविकताओं के व्यापक वितरण और उसकी उचित समझ की सुविधा के लिए वास्तव में एक गतिशील मंच बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं, इसलिए उन पर खुशी से काम किया जा सकता है। यह बस इतना आसान है। वह एकमात्र चीज़ जो हमें वाणीपीडिया के पूर्ण समापन से रोक रही है वो है समय; और वह भक्तगण जो इस कार्य को पूर्ण करने के लिए प्रतिबद्ध हैं, उनकी वाणी-सेवा के वो सारे बहुमूल्य पावन घंटे जो अभी देने शेष हैं। I thank you very much, all of you, for appreciating my humble service which I am trying to render as a matter of duty ordered by my Guru Maharaja. I request all my disciples to work cooperatively and I am sure our mission will advance without any doubt. – Srila Prabhupada Letter to Tamala Krishna das (GBC) - 14 August, 1971 Srila Prabhupada's Three Natural PositionsA culture of shelter at the lotus feet of Srila Prabhupada's teachings can only be realized when these three positions of Srila Prabhupada are awakened in the hearts of all his followers. Srila Prabhupada is our pre-eminent siksa-guru
Srila Prabhupada is the Founder-Acharya of ISKCON
Srila Prabhupada is the World-acharya
Vital to Establish Srila Prabhupada's Natural Position
CommentWe believe these obstacles can easily be overcome with the introduction of integral, structured educational and training programs aimed at nurturing our relationship with and increasing our knowledge of Srila Prabhupada's teachings. This will only succeed however if fueled by a serious leadership commitment to create a culture deeply rooted in Srila Prabhupada's Vani. Srila Prabhupada's natural position will thus automatically become, and remain, apparent to all generations of devotees. Devotees are his Limbs, ISKCON is his Body, and his Vani is his Soul
CommentWe are Srila Prabhupada's limbs. To successfully cooperate with him to his full satisfaction we must be united in consciousness with him. This loving unity develops from our becoming fully absorbed in, convinced by and practicing his Vani. Our holistic success strategy is for everyone to assimilate Srila Prabhupada's teachings and boldly place them at the heart of everything we do for his Krishna consciousness movement. In this way, Srila Prabhupada's devotees can flourish personally, and in their respective services to make ISKCON a solid body which can fulfill Srila Prabhupada's desire to save the world from complete disaster. The devotees win, the GBC wins, ISKCON wins, the world wins, Srila Prabhupada wins, and Lord Caitanya wins. There will be no losers. Distributing the Teachings of Parampara1486 Caitanya Mahaprabhu appears in order to teach the world Krishna consciousness – 533 years ago 1488 Sanatana Goswami appears in order to write books on Krishna consciousness – 531 years ago 1489 Rupa Gosvami appears in order to write books on Krishna consciousness – 530 years ago 1495 Raghunatha Gosvami appears in order to write books on Krishna consciousness – 524 years ago 1500 Mechanical printing presses begin to revolutionize the distribution of books throughout Europe – 520 years ago 1513 Jiva Gosvami appears in order to write books on Krishna consciousness – 506 years ago 1834 Bhaktivinoda Thakura appears in order to write books on Krishna consciousness – 185 years ago 1874 Bhaktisiddhanta Sarasvati appears in order to write books on Krishna consciousness – 145 years ago 1896 Srila Prabhupada appears in order to write books on Krishna consciousness – 123 years ago 1914 Bhaktisiddhanta Sarasvati coins the phrase "brhat-mrdanga" – 105 years ago 1922 Srila Prabhupada meets Bhaktisiddhanta Sarasvati for the first time and is immediately requested to preach in the English language - 97 years ago 1935 Srila Prabhupada receives the instruction to print books – 84 years ago 1944 Srila Prabhupada starts Back to Godhead magazine – 75 years ago 1956 Srila Prabhupada moves to Vrndavana to write books – 63 years ago 1962 Srila Prabhupada publishes his first volume of Srimad-Bhagavatam – 57 years ago 1965 Srila Prabhupada arrives in the West to distribute his books – 54 years ago 1968 Srila Prabhupada publishes his abridged Bhagavad-gita As-It-Is – 52 years ago 1972 Srila Prabhupada publishes his full version of Bhagavad-gita As-It-Is – 47 years ago 1972 Srila Prabhupada establishes the BBT to publish his books – 47 years ago 1974 Srila Prabhupada's disciples start the serious distribution of his books – 45 years ago 1975 Srila Prabhupada completes the Sri Caitanya-caritamrta – 44 years ago 1977 Srila Prabhupada stops speaking and leaves his Vani in our care – 42 years ago 1978 The Bhaktivedanta Archives is established – 41 years ago 1986 The world's digitally stored material amounts to 1 CD-ROM per person – 33 years ago 1991 The World Wide Web (brhat-brhat-brhat mrdanga) is established – 28 years ago 1992 The Bhaktivedanta VedaBase version 1.0 is created – 27 years ago 2002 The Digital Age arrives - worldwide digital storage overtakes analog – 17 years ago 2007 The world's digitally stored material amounts to 61 CD-ROMS per person – 12 years ago, that makes 427 billion CD-ROMs. (all full) 2007 Srila Prabhupada's Vani-temple, the Vanipedia begins construction in the web – 12 years ago 2010 Srila Prabhupada's Vapu-temple, the Temple of the Vedic Planetarium begins construction in Sridhama Mayapur – 9 years ago 2012 Vanipedia reaches 1,906,753 quotes, 108,971 pages and 13,946 categories – 7 years ago 2013 500,000,000 of Srila Prabhupada's books have been distributed by ISKCON devotees in 48 years – an average of 28,538 books every single day - 6 years ago 2019 21st March, Gaura Purnima day at 7.15 Central European Time, Vanipedia celebrates 11 years of inviting devotees to collaborate together to invoke and fully manifest Srila Prabhupada's Vani-presence. Vanipedia now offers 45,588 categories, 282,297 pages, 2,100,000 plus quotes presented in 93 languages. This has been achieved by over 1,220 devotees who have performed more than 295,000 hours of vaniseva. We still have a long way to go in order to complete Srila Prabhupada's Vani-temple thus we continue to invite devotees to participate in this glorious mission. CommentThe unfolding of the mission of Sri Caitanya Mahaprabhu under the banner of the modern day Krishna consciousness movement is a very exciting time to be performing devotional service. Srila Prabhupada, the Founder-acarya of the International Society of Krishna Consciousness has brought onto the world scene a life-changing phenomenon in the form of his Translations, Bhaktivedanta Purports, Lectures, Conversations, and Letters. Here lies the key to the respiritualization of the whole human society. Vani, Personal Association and Service in Separation - Quotes
CommentSrila Prabhupada offers many revealing truths in this series of statements.
Using Media to Spread Krishna's Message
CommentFollowing in the footsteps of his Guru Maharaja Srila Prabhupada knew the art of engaging everything for Krishna's service.
Modern-media, modern opportunitiesFor Srila Prabhupada, in the 1970's, the terms modern-media and mass-media meant the printing press, radio, TV and movies. Since his departure, the landscape of mass media has dramatically transformed to include Android phones, cloud computing and storage, e-book readers, e-commerce, interactive TV and gaming, online publishing, podcasts and RSS feeds, social networking sites, streaming media services, touch-screen technologies, web-based communications & distribution services and wireless technologies. In line with Srila Prabhupada's example we are, since 2007, using modern mass media technologies to compile, index, categorize and distribute Srila Prabhupada's Vani.
CommentThere is still more to be done to make Srila Prabhupada's teachings accessible and prominent in the world today. Collaborative web technologies provide us the opportunity to surpass all our previous successes. Vaniseva – the Sacred Act of Serving Srila Prabhupada's VaniSrila Prabhupada stopped speaking on the 14th of November, 1977, but the Vani he gave us remains ever fresh. However, these teachings are not yet in their pristine condition, nor are all of them readily accessible to his devotees. Srila Prabhupada's followers have a sacred duty to preserve and to distribute his Vani to everyone. We are therefore inviting you to perform this vaniseva. Always remember that you are one of the few men I have appointed to carry on my work throughout the world and your mission before you is huge. Therefore, always pray to Krishna to give you strength for accomplishing this mission by doing what I am doing. My first business is to give the devotees the proper knowledge and engage them in devotional service, so that is not very difficult task for you, I have given you everything, so read and speak from the books and so many new lights will come out. We have got so many books, so if we go on preaching from them for the next 1,000 years, there is enough stock. – Srila Prabhupada Letter to Satsvarupa das (GBC), 16 June 1972 In June of 1972 Srila Prabhupada said that "we have got so many books" that we have "enough stock" to preach from for the "next 1,000 years." At that time, only 10 titles had been printed, so with all the extra books that Srila Prabhupada published from July 1972 to November 1977 the number of years of stock could easily be expanded to 5,000. If we add to this his oral instructions and letters, then the stock expands to 10,000 years. We need to expertly prepare all these teachings to be accessed and properly understood so that they can be "preached from" for this whole period of time. There is no doubt that Srila Prabhupada has unending enthusiasm and determination to preach the message of Lord Caitanya Mahaprabhu. It does not matter that his vapu has left us. He remains in his teachings, and via the digital platform, he can now preach even more widely than when he was physically present. With complete dependence on Lord Caitanya's mercy, let us embrace Srila Prabhupada's vani-mission, and with more resolve than ever before, expertly prepare his Vani for 10,000 years of preaching. Over the past ten years I have given the framework and now we have become more than the British Empire. Even the British Empire was not as expansive as we. They had only a portion of the world, and we have not completed expanding. We must expand more and more unlimitedly. But I must now remind you that I have to complete the translation of the Srimad-Bhagavatam. This is the greatest contribution; our books have given us a respectable position. People have no faith in this church or temple worship. Those days are gone. Of course, we have to maintain the temples as it is necessary to keep our spirits high. Simply intellectualism will not do, there must be practical purification. So I request you to relieve me of management responsibilities more and more so that I can complete the Srimad-Bhagavatam translation. If I am always having to manage, then I cannot do my work on the books. It is document, I have to choose each word very soberly and if I have to think of management then I cannot do this. I cannot be like these rascals who present something mental concoction to cheat the public. So this task will not be finished without the cooperation of my appointed assistants, the GBC, temple presidents, and sannyasis. I have chosen my best men to be GBC and I do not want that the GBC should be disrespectful to the temple presidents. You can naturally consult me, but if the basic principle is weak, how will things go on? So please assist me in the management so that I can be free to finish the Srimad-Bhagavatam which will be our lasting contribution to the world. – Srila Prabhupada Letter to All Governing Body Commissioners, 19 May 1976 Here Srila Prabhupada is stating "this task will not be finished without the cooperation of my appointed assistants" to help him make "our lasting contribution to the world." It is Srila Prabhupada's books that have "given us a respectable position" and they are "the greatest contribution to the world." Over the years, so much vaniseva has been performed by BBT devotees, book distributors, preachers who have held firmly to Srila Prabhupada's words, and by other devotees who have been dedicated to distribute and preserve his Vani in one way or another. But there is still much more to do. By working together via the technologies of the brhat-brhat-brhat mrdanga (the World Wide Web) we now have an opportunity to build an unparalleled manifestation of Srila Prabhupada's Vani in a very short period of time. Our proposal is to come together in vaniseva and build a Vani-temple to be completed by November 4th, 2027, at which time we will all be celebrating the final 50th anniversary. 50 years of serving Srila Prabhupada in separation. This will be a very appropriate and beautiful offering of love to Srila Prabhupada, and a glorious gift to all the future generations of his devotees. I am glad that you have named your printing press the Radha Press. It is very gratifying. May your Radha Press be enriched in publishing all our books and literatures in the German language. It is a very nice name. Radharani is the best, topmost servitor of Krishna, and the printing machine is the biggest medium at the present moment for serving Krishna. Therefore, it is really a representative of Srimati Radharani. I like the idea very much. – Srila Prabhupada Letter to Jaya Govinda das (Book production manager), 4 July 1969 For the better part of the 20th century, the printing press provided the tools for successful propaganda from so many groups of people. Srila Prabhupada stated how expert the communists were to spread their influence in India via the pamphlets and books they distributed. Srila Prabhupada used this example to express how he wanted to make a large propaganda program for Krishna consciousness by distributing his books all over the world. Now, in the 21st century, Srila Prabhupada's statement "the biggest medium at the present moment for serving Krishna" can undoubtedly be applied to the exponential and unparalleled power of internet publishing and distribution. In Vanipedia, we are preparing Srila Prabhupada's teachings for proper representation on this modern mass distribution platform. Srila Prabhupada stated that the Radha Press of his devotees in Germany was "really a representative of Srimati Radharani." We are therefore certain that he would consider Vanipedia to be a representative of Srimati Radharani as well. So many beautiful Vapu-temples have already been built by ISKCON devotees – let us now build at least one glorious Vani-temple. The Vapu-temples offer sacred darshans to the forms of the Lord, and a Vani-temple will offer the sacred darshan to the teachings of the Lord and His pure devotees, as presented by Srila Prabhupada. The work of ISKCON devotees will naturally be more successful when Srila Prabhupada's teachings are situated in their rightful, worshipable position. Now there is a wonderful opportunity for all his current "appointed assistants" to embrace the vani-mission of building his Vani-temple and to inspire the whole movement to participate. Just as the enormous and beautiful Vapu-temple rising from the banks of the Ganges in Sridham Mayapur is destined to help spread Lord Caitanya's mercy all over the world, so too can a Vani-temple of Srila Prabhupada's teachings strengthen his ISKCON mission to spread all over the world and establish Srila Prabhupada's natural position for thousands of years to come. Vaniseva – Taking Practical Action to Serve
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We Are Grateful - PrayersWe Are Grateful
Thank you for considering these prayers CommentOnly by the empowering grace of Srila Prabhupada, Sri Sri Panca Tattva, and Sri Sri Radha Madhava can we ever hope to achieve this herculean task. Thus we incessantly pray for Their mercy. |