HI/BG 2.30: Difference between revisions

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==== श्लोक 30 ====
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:देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
 
:तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥३०॥
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Latest revision as of 14:20, 28 July 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 30

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥३०॥

शब्दार्थ

देही—भौतिक शरीर का स्वामी; नित्यम्—शाश्वत; अवध्य:—मारा नहीं जा सकता; अयम्—यह आत्मा; देहे—शरीर में; सर्वस्य—हर एक के; भारत—हे भरतवंशी; तस्मात्—अत:; सर्वाणि—समस्त; भूतानि—जीवों (जन्म लेने वालों) को; न—कभी नहीं; त्वम्—तुम; शोचितुम्—शोक करने के लिए; अर्हसि—योग्य हो।

अनुवाद

हे भारतवंशी! शरीर में रहने वाले (देही) का कभी भी वध नहीं किया जा सकता । अतः तुम्हें किसी भी जीव के लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है ।

तात्पर्य

अब भगवान् अविकारी आत्मा विषयक अपना उपदेश समाप्त कर रहे हैं । अमर आत्मा का अनेक प्रकार से वर्णन करते हुए भगवान् कृष्ण ने आत्मा को अमर तथा शरीर को नाशवान सिद्ध किया है । अतः क्षत्रिय होने के नाते अर्जुन को इस भय से कि युद्ध में उसके पितामह भीष्म तथा गुरु द्रोण मर जायेंगे अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिए । कृष्ण को प्रमाण मानकर भौतिक देह से भिन्न आत्मा का पृथक् अस्तित्व स्वीकार करना होगा, यह नहीं कि आत्मा जैसी कोई वस्तु नहीं है या कि जीवन के लक्षण रसायनों की अन्तःक्रिया के फलस्वरूप एक विशेष अवस्था में प्रकट होते हैं । यद्यपि आत्मा अमर है, किन्तु इससे हिंसा को प्रोत्साहित नहीं किया जाता । फिर भी युद्ध के समय हिंसा का निषेध नहीं किया जाता क्योंकि तब इसकी आवश्यकता रहती है । ऐसी आवश्यकता को भगवान् की आज्ञा के आधार पर उचित ठहराया जा सकता है, स्वेच्छा से नहीं ।