HI/BG 2.33: Difference between revisions
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Latest revision as of 14:25, 28 July 2020
श्लोक 33
- अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
- ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥३३॥
शब्दार्थ
अथ—अत:; चेत्—यदि; त्वम्—तुम; इमम्—इस; धम्र्यम्—धर्म रूपी; सङ्ग्रामम्—युद्ध को; न—नहीं; करिष्यसि—करोगे; तत:—तब; स्व-धर्मम्—अपने धर्म को; कीॢतम्—यश को; च—भी; हित्वा—खोकर; पापम्—पापपूर्ण फल को; अवाह्रश्वस्यसि—प्राह्रश्वत करोगे।
अनुवाद
किन्तु यदि तुम युद्ध करने के स्वधर्म को सम्पन्न नहीं करते तो तुम्हें निश्चित रूप से अपने कर्तव्य की अपेक्षा करने का पाप लगेगा और तुम योद्धा के रूप में भी अपना यश खो दोगे |
तात्पर्य
अर्जुन विख्यात योद्धा था जिसने शिव आदि अनेक देवताओं से युद्ध करके यश अर्जित किया था | शिकारी के वेश में शिवजी से युद्ध करके तथा उन्हें हरा कर अर्जुन ने उन्हें प्रसन्न किया था और वर के रूप में पाशुपतास्त्र प्राप्त किया था | सभी लोग जानते थे कि वह महान योद्धा है | स्वयं द्रोणाचार्य ने उसे आशीष दिया था और एक विशेष अस्त्र प्रदान किया था, जिससे वह अपने गुरु का भी वध कर सकता था | इस प्रकार वह अपने धर्मपिता एवं स्वर्ग के रजा इन्द्र समेत अनेक अधिकारीयों से अनेक युद्धों के प्रमाणपत्र प्राप्त कर चुका था , किन्तु यदि वह इस समय युद्ध का परित्याग करता है तो वह न केवल क्षत्रिय धर्म की अपेक्षा का दोषी होगा, अपितु उसके यश की भी हानि होगी और वह नरक जाने के लिए अपना मार्ग तैयार कर लेगा | दूसरे शब्दों में, वह युद्ध करने से नहीं, अपितु युद्ध से पलायन करने के कारण नरक का भागी होगा |